अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 16/ मन्त्र 4
आ॑प्रुषा॒यन्मधु॑ना ऋ॒तस्य॒ योनि॑मवक्षि॒पन्न॒र्क उ॒ल्कामि॑व॒ द्योः। बृह॒स्पति॑रु॒द्धर॒न्नश्म॑नो॒ गा भूम्या॑ उ॒द्नेव॒ वि त्वचं॑ बिभेद ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒ऽप्रु॒षा॒यन् । मधु॑ना । ऋ॒तस्य॑ । योनि॑म् । अ॒व॒ऽक्षि॒पन् ।अ॒र्क: । उ॒ल्काम्ऽइ॑व । द्यौ: ॥ बृह॒स्पति॑: । उ॒द्धर॑न् । अश्म॑न: । गा: । भूम्या॑: । उ॒द्नाऽइ॑व । वि । त्वच॑म् । बि॒भे॒द॒ ॥१६.४॥
स्वर रहित मन्त्र
आप्रुषायन्मधुना ऋतस्य योनिमवक्षिपन्नर्क उल्कामिव द्योः। बृहस्पतिरुद्धरन्नश्मनो गा भूम्या उद्नेव वि त्वचं बिभेद ॥
स्वर रहित पद पाठआऽप्रुषायन् । मधुना । ऋतस्य । योनिम् । अवऽक्षिपन् ।अर्क: । उल्काम्ऽइव । द्यौ: ॥ बृहस्पति: । उद्धरन् । अश्मन: । गा: । भूम्या: । उद्नाऽइव । वि । त्वचम् । बिभेद ॥१६.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 16; मन्त्र » 4
विषय - अर्क:-बृहस्पतिः
पदार्थ -
१. (मधुना) = जीवन को मधुर बनानेवाले सोम [वीर्य] के द्वारा (आप्रुषायन्) = शरीर-भूमि को सर्वत: सिक्त करता हुआ और (ऋतस्य योनिम्) = सत्य वेदज्ञान के उत्पत्तिस्थान प्रभु को (अवक्षिपन्) = [अवाङ् मुखं प्रेरयन्] अपने अन्दर प्रेरित करता हुआ (अर्क:) = उपासक (त्वचम्) = अज्ञानान्धकार के आवरण को (विबिभेद) = विदीर्ण कर डालता है। इसप्रकार विदीर्ण कर डालता है, (इव) = जैसेकि (उद्ना) = जल से (भूम्या:) = भूमि की त्वचा को विदीर्ण कर दिया जाता है। २. यह उपासक द्यो: उल्काम् (इव) = जिस प्रकार आकाश से उल्का [flame] अग्नि-ज्वाला को, इसीप्रकार ज्ञान को अपने अन्दर प्रेरित करता हुआ (बृहस्पतिः) = ज्ञान का स्वामी बनता है और (अश्मन:) = अविद्यान्धकाररूप पर्वत से गा: इन्द्रियरूप गौओं को (उद्धरन्) = उद्धृत करता हुआ होता है। धीमे-धीमे अविद्या के विनाश के द्वारा सब इन्द्रियों को दीप्त करनेवाला बनता है।
भावार्थ - हम शरीर में सोम का सर्वत:सेचन करें। प्रभु व ज्ञान को अपने हृदयों में प्रेरित करते हुए इन्द्रियों को अविद्यान्धकार से बाहर करें।
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