अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 16/ मन्त्र 6
य॒दा व॒लस्य॒ पीय॑तो॒ जसुं॒ भेद्बृह॒स्पति॑रग्नि॒तपो॑भिर॒र्कैः। द॒द्भिर्न जि॒ह्वा परि॑विष्ट॒माद॑दा॒विर्नि॒धीँर॑कृणोदु॒स्रिया॑णाम् ॥
स्वर सहित पद पाठय॒दा । व॒लस्य॑ । पीय॑त: । जसु॑म् । भेत् । बृह॒स्पति॑: । अ॒ग्नि॒तप॑:ऽभि: । अ॒र्कै: । द॒त्ऽभि: । न । जि॒ह्वा । परि॑ऽविष्टम् । आद॑त् । आ॒वि: । नि॒ऽधीन् । अ॒कृ॒णो॒त् । उ॒स्रिया॑णाम् ॥१६.६॥
स्वर रहित मन्त्र
यदा वलस्य पीयतो जसुं भेद्बृहस्पतिरग्नितपोभिरर्कैः। दद्भिर्न जिह्वा परिविष्टमाददाविर्निधीँरकृणोदुस्रियाणाम् ॥
स्वर रहित पद पाठयदा । वलस्य । पीयत: । जसुम् । भेत् । बृहस्पति: । अग्नितप:ऽभि: । अर्कै: । दत्ऽभि: । न । जिह्वा । परिऽविष्टम् । आदत् । आवि: । निऽधीन् । अकृणोत् । उस्रियाणाम् ॥१६.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 16; मन्त्र » 6
विषय - वल जसु-भेदन
पदार्थ -
१. (बृहस्पति:) = ज्ञान का स्वामी प्रभु (यदा) = जब (पीयत:) = हिंसा करनेवाले (वलस्य) = ज्ञान के आवरणभूत काम के (जसुम्) = विनाशक प्रभाव को (अग्नितपोभिः) = अग्नि के समान दीप्त (अर्कैः अर्चन) = साधन मन्त्रों से भेद-विनष्ट कर डालता है तब (उस्त्रियाणाम्) = ज्ञानरश्मियों [ light] के निधीन्-कोशों को आविः अकृणोत्-प्रकट करता है। २. न-जिस प्रकार जिला परिविष्टम्-जिह्वा परोसे हुए भोजन को दद्धिः दाँतों से आदत्-खाती है, उसीप्रकार प्रभु वल-वृत्र-काम के विनाशक प्रभाव को खा जाते हैं। हृदय में प्रभु के आसीन होने पर वहाँ से काम विनष्ट हो जाता है।
भावार्थ - प्रभु ज्ञान की वाणियों के द्वारा वासना-जनित अन्धकार को विनष्ट करते हैं और ज्ञान-रश्मियों के कोश को प्रकट कर देते हैं।
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