अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 16/ मन्त्र 3
सा॑ध्व॒र्या अ॑ति॒थिनी॑रिषि॒रा स्पा॒र्हाः सु॒वर्णा॑ अनव॒द्यरू॑पाः। बृह॒स्पतिः॒ पर्व॑तेभ्यो वि॒तूर्या॒ निर्गा ऊ॑पे॒ यव॑मिव स्थि॒विभ्यः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठसा॒धु॒ऽअ॒र्या: । अ॒ति॒थिनी॑: । इ॒षि॒रा: । स्पा॒र्हा: । सु॒ऽवर्णा॑: । अ॒न॒व॒द्यऽरू॑पा: ॥ बृह॒स्पति॑: । पर्व॑तेभ्य: । वि॒ऽतूर्य॑ । नि: । गा: । ऊ॒पे॒ । यव॑म्ऽइव । स्थि॒विऽभ्य॑: ॥१६.३॥
स्वर रहित मन्त्र
साध्वर्या अतिथिनीरिषिरा स्पार्हाः सुवर्णा अनवद्यरूपाः। बृहस्पतिः पर्वतेभ्यो वितूर्या निर्गा ऊपे यवमिव स्थिविभ्यः ॥
स्वर रहित पद पाठसाधुऽअर्या: । अतिथिनी: । इषिरा: । स्पार्हा: । सुऽवर्णा: । अनवद्यऽरूपा: ॥ बृहस्पति: । पर्वतेभ्य: । विऽतूर्य । नि: । गा: । ऊपे । यवम्ऽइव । स्थिविऽभ्य: ॥१६.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 16; मन्त्र » 3
विषय - पर्वतेभ्यः वितूर्य
पदार्थ -
१. (बृहस्पति:) = ब्रह्मणस्पति-ज्ञान के स्वामी प्रभु (गा:) = इन्द्रियों को (पर्वतेभ्य:) = अविद्यापर्वतों से (वितूर्य) = पृथक् करके बाहर करके (नि: ऊपे) = स्तोताओं के लिए [निर्वपति-प्रयच्छति] देते हैं। (इव) = जिस प्रकार (स्थिविभ्यः) = कुसूलों से-खत्तियों से निकालकर (यवम्) = जी को। अथवा (स्थिविभ्यः) = स्थिर यवकाण्डों से पृथक् करके यवों को हमारे लिए देते हैं। २. ये इन्द्रियाँ साधु (अर्याः) = सदा उत्तम कार्यों की ओर गतिवाली होती हैं। (अतिथिनी:) = प्रभुरूप अतिथि की ओर निरन्तर चलनेवाली होती हैं, अतएव ये (इषिरा:) = एषणीय [चाहने योग्य] व (स्पार्हा:) = सबसे स्पृहणीय, (सुवर्णा:) = उत्तम वर्ण-[रूप]-वाली व (अनवद्यरूपा:) = प्रशस्तरूपवाली होती हैं।
भावार्थ - हम प्रभु की उपासना करें। प्रभु हमें पवित्र इन्द्रियों को प्राप्त कराएंगे। हमारी इन्द्रियाँ अविद्यापर्वत से बाहर आ जाएँगी।
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