Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 16

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 16/ मन्त्र 2
    सूक्त - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१६

    सं गोभि॑रङ्गिर॒सो नक्ष॑माणो॒ भग॑ इ॒वेद॑र्य॒मणं॑ निनाय। जने॑ मि॒त्रो न दम्प॑ती अनक्ति॒ बृह॑स्पते वा॒जया॒शूँरि॑वा॒जौ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । गोभि॑: । आ॒ङ्गि॒र॒स: । नक्ष॑माण: । भग॑:ऽइव । इत् । अ॒र्य॒मण॑म् । नि॒ना॒य॒ ॥ जने॑ । मि॒त्र: । न । दम्प॑ती॒ इति॒ दम्ऽप॑ती । अ॒न॒क्ति॒ । बृह॑स्पते । वा॒जय॑ । आ॒शून्ऽइ॑व । आ॒जौ ॥१६.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सं गोभिरङ्गिरसो नक्षमाणो भग इवेदर्यमणं निनाय। जने मित्रो न दम्पती अनक्ति बृहस्पते वाजयाशूँरिवाजौ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । गोभि: । आङ्गिरस: । नक्षमाण: । भग:ऽइव । इत् । अर्यमणम् । निनाय ॥ जने । मित्र: । न । दम्पती इति दम्ऽपती । अनक्ति । बृहस्पते । वाजय । आशून्ऽइव । आजौ ॥१६.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 16; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    १. (गोभिः) = स्तुतिवाणियों से व ज्ञानवाणियों से (नक्षमाण:) = व्याप्त होता हुआ (अङ्गिरसः) = यह रसमय अंगोंवाला उपासक (अर्यमणम्) = शत्रुओं के नियामक उस प्रभु को (इत्) = निश्चय से (भगः इव) = ऐश्वर्य के समान [भगम् इव] (संनिनाय) = अपने हृदय में प्राप्त कराता है। प्रभु का हृदय में स्मरण करता है-प्रभु को ही अपना ऐश्वर्य समझता है। यहाँ 'अंगिरस:' शब्द शरीर के पूर्ण स्वास्थ्य का संकेत कर रहा है, 'गोभिः नक्षमाणः' पद ज्ञान का संकेत करते हुए मस्तिष्क की दीति का उल्लेख करते हैं तथा 'अर्यमणं' शब्द शत्रुसंयम द्वारा मन की निर्मलता को कह रहे हैं। २. वह प्रभु (जने) = प्राणिसमूह में (मित्रः न) = मित्र के समान (दम्पती) = इन उपासक पति-पत्नी को (अनक्ति) = प्राप्त होता है [गच्छति]। हे बृहस्पते ब्रह्मणस्पते प्रभो! (आजौ) = संग्राम में (आशन इव) = शीघ्रगामी अश्वों के समान वाजय इन पति-पत्नी को आप गमन के लिए प्रेरित कीजिए [वज गतौ]। आपके उपासक इस जीवन-संग्राम में शत्रुओं को जीतते हुए आगे बढ़ें।

    भावार्थ - स्तुति करते हुए हम प्रभु को ही अपना ऐश्वर्य जानें। प्रभु को हृदय में आसीन करें। प्रभु मित्र के समान हमें प्रास होते हैं और हमें जीवन-संग्राम में गतिशील बनाते हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top