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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 16

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 16/ मन्त्र 5
    सूक्त - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१६

    अप॒ ज्योति॑षा॒ तमो॑ अ॒न्तरि॑क्षादु॒द्नः शीपा॑लमिव॒ वात॑ आजत्। बृह॒स्पति॑रनु॒मृश्या॑ व॒लस्या॒भ्रमि॑व॒ वात॒ आ च॑क्र॒ आ गाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अप॑ । ज्योति॑षा । तम॑: । अ॒न्तरि॑क्षात् । उ॒द्न: । शीपा॑लम्ऽइव । वात॑:। आ॒ज॒त् ॥ बृह॒स्पति॑: । अ॒नु॒ऽमृ‌श्य॑ । व॒लस्य॑ । अ॒भ्रम्ऽइ॑व । वात॑: । आ । च॒क्रे॒ । आ । गा: ॥१६.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अप ज्योतिषा तमो अन्तरिक्षादुद्नः शीपालमिव वात आजत्। बृहस्पतिरनुमृश्या वलस्याभ्रमिव वात आ चक्र आ गाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अप । ज्योतिषा । तम: । अन्तरिक्षात् । उद्न: । शीपालम्ऽइव । वात:। आजत् ॥ बृहस्पति: । अनुऽमृ‌श्य । वलस्य । अभ्रम्ऽइव । वात: । आ । चक्रे । आ । गा: ॥१६.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 16; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    १. (बृहस्पतिः) = ज्ञान का स्वामी प्रभु (ज्योतिषा) = ज्ञान-ज्योति के द्वारा (अन्तरिक्षात्) = हमारे हृदयान्तरिक्ष से (तमः) = अन्धकार को (अप आजत्) = दूर फेंक देता है, (इव) = जैसेकि (वात:) = वायु उद्नः पानी पर से (शीपालम्) = शैवाल-काई को दूर फेंक देता है। प्रभु ज्योति के द्वारा अज्ञानान्धकार को इसीप्रकार परे फेंक देते हैं जैसेकि तेज़ वायु पानी पर से काई को परे फेंक देती है। २. वे प्रभु (वलस्य) = ज्ञान के आवरणभूत कामरूप आसुरभाव को (अनुमश्य) = क्रमश: दूर करके [मृश्-to remove, rule off] गाः आचक्रे चारों ओर ज्ञान-रश्मियों को फैलानेवाले होते हैं। प्रभु काम [वृत्र] को इसप्रकार दूर कर देते हैं, (इव) = जैसेकि (वात:) = वायु (अभ्रम्) = मेघ को दूर कर देता है।

    भावार्थ - प्रभु हमारे हदयान्तरिक्ष से अन्धकार को ज्योति के द्वारा इसप्रकार भगा देते हैं, जैसे तेज वायु मेष को छिन्न-भिन्न कर देता है।

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