अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 16/ मन्त्र 9
सोषाम॑विन्द॒त्स स्वः सो अ॒ग्निं सो अ॒र्केण॒ वि ब॑बाधे॒ तमां॑सि। बृह॒स्पति॒र्गोव॑पुषो व॒लस्य॒ निर्म॒ज्जानं॒ न पर्व॑णो जभार ॥
स्वर सहित पद पाठस: । उ॒षाम् । अ॒वि॒न्द॒त् । स: । स्व॑१॒ रिति॑ स्व॑: । स: । अ॒ग्निम् । स: । अ॒र्केण॑ । वि । ब॒बा॒धे॒ । तमां॑सि ॥ बृह॒स्पति॑: । गोऽव॑पुष: । व॒लस्य॑ । नि: । म॒ज्जान॑म् । न । पर्व॑ण: । ज॒भा॒र॒ ॥१६.९॥
स्वर रहित मन्त्र
सोषामविन्दत्स स्वः सो अग्निं सो अर्केण वि बबाधे तमांसि। बृहस्पतिर्गोवपुषो वलस्य निर्मज्जानं न पर्वणो जभार ॥
स्वर रहित पद पाठस: । उषाम् । अविन्दत् । स: । स्व१ रिति स्व: । स: । अग्निम् । स: । अर्केण । वि । बबाधे । तमांसि ॥ बृहस्पति: । गोऽवपुष: । वलस्य । नि: । मज्जानम् । न । पर्वण: । जभार ॥१६.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 16; मन्त्र » 9
विषय - उषासूर्य-अग्नि-अर्क [मन्त्र]
पदार्थ -
१. (स:) = वे प्रभु ही (उषाम्) = अन्धकार-विनाशिनी उषा को (अविन्दत्) = प्राप्त कराते हैं। (स:) = वे ही (स्व:) = प्रकाश के साधनभूत सूर्य को प्राप्त कराते हैं। (सः) = वे (अग्निम्) = यज्ञ आदि कर्मों के लिए अग्नि को प्राप्त कराते हैं। (सः) = वे (अर्केण) = अर्चनसाधन मन्त्रों के द्वारा (तमांसि) = अज्ञानान्धकारों को (विबबाधे) = दूर बाधित करते हैं। २. [वपुष-beauty] (गोवपुषः) = [गोभि: वपुष यस्य] ज्ञान की वाणियों के सौन्दर्यवाले (बृहस्पतिः) = [ब्रह्म] ज्ञान के स्वामी प्रभु वलस्य-ज्ञान के आवरणभूत वृत्र के विदारण के द्वारा निर्जभार-ज्ञान-धेनु को अविह्यापर्वत की गुहा से बाहर करते हैं, (न) = जिस प्रकार (पर्वण:) = अस्थिपर्व से (मजानम्) = मज्जा को बाहर किया जाता है। मन्त्र ९ तथा १० में प्रभु संकेत करते हैं कि [१] हे जीव ! तू उषाकाल में प्रबद्ध हो [२] सूर्योदय तक सारे नित्यकृत्यों को समाप्त करके [स्वः] अग्निहोत्र के लिए प्रवृत्त हो [३] तत्पश्चात् अर्चनमन्त्रों से प्रभु-पूजन करता हुआ [अर्कण] स्वाध्याय द्वारा अज्ञानान्धकार को दूर कर [तासि विबबाधे] [४] वल [वासना] के आवरण से [गा:] वेदवाणीरूप गौओं को बाहर निकाल। तेरे जीवन में विद्या के सूर्य व विज्ञान के चन्द्र का उदय हो [सूर्यामासा]।
भावार्थ - प्रभु 'उषा-सूर्य-अग्नि व मन्त्रों को प्राप्त कराके, वासना को विनष्ट करते हुए हमारे जीवनों को ज्ञान के सौन्दर्य से सम्पन्न करते हैं।
इस भाष्य को एडिट करें