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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 16

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 16/ मन्त्र 11
    सूक्त - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१६

    अ॒भि श्या॒वं न कृश॑नेभि॒रश्वं॒ नक्ष॑त्रेभिः पि॒तरो॒ द्याम॑पिंशन्। रात्र्यां॒ तमो॒ अद॑धु॒र्ज्योति॒रह॒न्बृह॒स्पति॑र्भि॒नदद्रिं॑ वि॒दद्गाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । श्या॒वम् । न । कृश॑नेभि : । अश्व॑म् । नक्ष॑त्रेभि: । पि॒तर॑: । द्याम् । अ॒पिं॒श॒न् ॥ रात्र्या॑म् । तम॑: । अद॑धु: । ज्योति॑: । अह॑न् । बृह॒स्पति॑: । भि॒नत् । अद्रि॑म् । वि॒दत् । गा:॥१६.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि श्यावं न कृशनेभिरश्वं नक्षत्रेभिः पितरो द्यामपिंशन्। रात्र्यां तमो अदधुर्ज्योतिरहन्बृहस्पतिर्भिनदद्रिं विदद्गाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । श्यावम् । न । कृशनेभि : । अश्वम् । नक्षत्रेभि: । पितर: । द्याम् । अपिंशन् ॥ रात्र्याम् । तम: । अदधु: । ज्योति: । अहन् । बृहस्पति: । भिनत् । अद्रिम् । विदत् । गा:॥१६.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 16; मन्त्र » 11

    पदार्थ -
    १. (पितरः) = पालनात्मक कर्मों में प्रवृत्त पुरुष (द्याम्) = मस्तिष्करूप धुलोक को (नक्षत्रेभि:) = विज्ञान के नक्षत्रों से इसप्रकार (अपिंशन) = अलंकृत करते हैं, (न) = जैसेकि (श्यावं अश्वम्) = [श्यैङ्गतौ] खुब गतिशील व कपिशवर्णवाले अश्व को (कृशनेभिः) = सुवर्णमय आभरणों से (अभि) = [पिंशन्ति]-सजाया करते हैं। २. ये पितर (तमः) = सारे अज्ञानान्धकार को (रात्र्यां अदभुः) = रात में ही स्थापित कर देते हैं। (अहन्) = जीवन के दिनों में ये (ज्योति:) = प्रकाश-हो-प्रकाश को स्थापित करते हैं। इनका दिन ज्ञान के प्रकाश को प्राप्त करने में ही बीतता है। (बृहस्पति:) = वह ज्ञान का स्वामी प्रभु (अद्रिः भिनत्) = इनके अविद्यापर्वत का विदारण करता है और (गा: विदत्) = इन्हें ज्ञान की वाणियों को प्राप्त कराता है।

    भावार्थ - हम अपने मस्तिष्करूप द्युलोक को विज्ञान के नक्षत्रों से दीस करने का प्रयत्न करें। हमारे दिन का समय ज्ञान-प्राप्ति में ही व्यतीत हो। प्रभु भी हमारे अविद्यापर्वत का विदारण करके हमारे लिए ज्ञान-धेनुओं को प्राप्त कराएंगे।

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