अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 35/ मन्त्र 11
अ॒स्येदु॑ त्वे॒षसा॑ रन्त॒ सिन्ध॑वः॒ परि॒ यद्वज्रे॑ण सी॒मय॑च्छत्। ई॑शान॒कृद्दा॒शुषे॑ दश॒स्यन्तु॒र्वीत॑ये गा॒धं तु॒र्वणिः॒ कः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्य । इत् । ऊं॒ इति॑ । त्वे॒षसा॑ । र॒न्त॒ । सिन्ध॑व: । परि॑ । यत् । वज्रे॑ण । सी॒म् । अय॑च्छत् ॥ ई॒शा॒न॒ऽकृत् । दा॒शुषे॑ । द॒श॒स्यन् । तु॒र्वीत॑ये । गा॒धम् । तु॒र्वणि॑: । क॒रिति॑ । क: ॥३५.११॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्येदु त्वेषसा रन्त सिन्धवः परि यद्वज्रेण सीमयच्छत्। ईशानकृद्दाशुषे दशस्यन्तुर्वीतये गाधं तुर्वणिः कः ॥
स्वर रहित पद पाठअस्य । इत् । ऊं इति । त्वेषसा । रन्त । सिन्धव: । परि । यत् । वज्रेण । सीम् । अयच्छत् ॥ ईशानऽकृत् । दाशुषे । दशस्यन् । तुर्वीतये । गाधम् । तुर्वणि: । करिति । क: ॥३५.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 35; मन्त्र » 11
विषय - ज्ञानसिन्धु-प्रवाह
पदार्थ -
१. (यत्) = जब एक जितेन्द्रिय पुरुष (वज्रेण) = क्रियाशीलतारूप वज्र के द्वारा (सीम्) = निश्चय से (परि अयच्छत्) = वासना का सर्वत: नियमन करता है तब (अस्य इत् उ) = इस प्रभु की ही (त्वेषसा) = दीप्ति से (सिन्धवः) = ज्ञान के प्रवाह (रन्त) = हमारे जीवन में रमण करते हैं। वासना ज्ञान-प्रवाह को रोक देती है। वासना-विनाश से यह ज्ञान-प्रवाह फिर से प्रवाहित हो उठता है। २. प्रभु ही इस जितेन्द्रिय पुरुष को (ईशानकृत्) = इन्द्रियों का स्वामी बनाते हैं तथा (दाशुषे) = भोगासक्त न होने के कारण दाश्वान् पुरुषों के लिए (दशस्यन्) = सदा इष्ट धनों को देते हुए ये (तुर्वणिः) = शीघ्रता से धनों का सम्भजन करनेवाले प्रभु (तुर्वीतये) = वासनाओं का संहार करनेवाले पुरुष के लिए (गाधं क:) = प्रतिष्ठा करनेवाले होते हैं। इस तुर्वीति का जीवन अप्रतिष्ठ नहीं होता। यह जीवन में स्थिर आधार को प्राप्त करके उन्नति-पथ पर आगे बढ़ता है।
भावार्थ - हम क्रियाशील बनकर वासना का नियमन करते हुए प्रभु की दीप्ति से अपने जीवन में ज्ञानप्रवाहों को प्रवाहित करें। ईशान बनकर प्रभु से आवश्यक धनों को प्राप्त करते हुए प्रभुरूप स्थिर आधार को प्राप्त करके जीवन-पथ में आगे बढ़ें।
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