अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 35/ मन्त्र 2
अ॒स्मा इदु॒ प्रय॑ इव॒ प्र यं॑सि॒ भरा॑म्याङ्गू॒षं बाधे॑ सुवृ॒क्ति। इन्द्रा॑य हृ॒दा मन॑सा मनी॒षा प्र॒त्नाय॒ पत्ये॒ धियो॑ मर्जयन्त ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्मै । इत् । ऊं॒ इति॑ । प्रय॑:ऽइव । प्र । यं॒सि । भरा॑मि । आ॒ङ्गू॒षम् । बाधे॑ । सु॒ऽवृ॒क्ति ॥ इन्द्रा॑य । हदा । मन॑सा । म॒नी॒षा । प्र॒त्नाय॑ । पत्ये॑ । धिय॑: । म॒र्ज॒य॒न्त॒ ॥३५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्मा इदु प्रय इव प्र यंसि भराम्याङ्गूषं बाधे सुवृक्ति। इन्द्राय हृदा मनसा मनीषा प्रत्नाय पत्ये धियो मर्जयन्त ॥
स्वर रहित पद पाठअस्मै । इत् । ऊं इति । प्रय:ऽइव । प्र । यंसि । भरामि । आङ्गूषम् । बाधे । सुऽवृक्ति ॥ इन्द्राय । हदा । मनसा । मनीषा । प्रत्नाय । पत्ये । धिय: । मर्जयन्त ॥३५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 35; मन्त्र » 2
विषय - 'हदा, मनसा, मनीषा'
पदार्थ -
१. (अस्मै इत् उ) = इस प्रभु के लिए निश्चय से (प्रयः इव) = अन्न की भौति (प्रयंसि) = तू अपने को प्राप्त कराता है। जैसे प्रात:-सायं तू अन्न का सेवन करता है, उसी प्रकार प्रात:-सायं तू प्रभु का उपासन भी करता है। तू यह निश्चय कर कि मैं (बाधे) = शत्रुओं के बन्धन के निमित्त सक्ति शत्रुओं का सम्यक् वर्जन करनेवाले (आंगुषम्) = स्तोत्र को (भरामि) = सम्पादित करता हूँ। प्रभु-स्तवन ही काम-क्रोध-लोभ आदि शत्रुओं का वर्जन करनेवाला होगा। २. उस (प्रत्नाय) = सनातन पत्ये सबके रक्षक (इन्द्राय) = परमैश्वर्यशाली प्रभु की प्राप्ति के लिए स्तोता लोग इदा हृदय से-हृदयस्थ श्रद्धा से, (मनसा) = मन से-मन के दृढ़ संकल्प से तथा (मनीषा) = बुद्धि के द्वारा (धियः) = अपने कर्मों को (मर्जयन्त) = शुद्ध करते हैं। इस कर्मशुद्धि के होने पर ही प्रभु का दर्शन होगा।
भावार्थ - हम प्रात:-सायं प्रभु-स्तवन करें। प्रभु-प्राप्ति के लिए हृदय, मन व बुद्धि' की पवित्रता से कर्मों की पवित्रता का सम्पादन करें।
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