अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 35/ मन्त्र 12
अ॒स्मा इदु॒ प्र भ॑रा॒ तूतु॑जानो वृ॒त्राय॒ वज्र॒मीशा॑नः किये॒धाः। गोर्न पर्व॒ वि र॑दा तिर॒श्चेष्य॒न्नर्णां॑स्य॒पां च॒रध्यै॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्मै । इत् । ऊं॒ इति॑ । प्र । भ॒र॒ । तूतु॑जान: । वृ॒त्राय॑ । वज्र॑म् । ईशा॑न: । कि॒ये॒धा: ॥ गो: । न । पर्व॑ । वि । र॒द॒ । ति॒र॒श्चा । इष्य॑न् । अर्णा॑सि । अ॒पाम् । च॒रध्यै॑ ॥३५.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्मा इदु प्र भरा तूतुजानो वृत्राय वज्रमीशानः कियेधाः। गोर्न पर्व वि रदा तिरश्चेष्यन्नर्णांस्यपां चरध्यै ॥
स्वर रहित पद पाठअस्मै । इत् । ऊं इति । प्र । भर । तूतुजान: । वृत्राय । वज्रम् । ईशान: । कियेधा: ॥ गो: । न । पर्व । वि । रद । तिरश्चा । इष्यन् । अर्णासि । अपाम् । चरध्यै ॥३५.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 35; मन्त्र » 12
विषय - गो-पर्व विदारण
पदार्थ -
१. हे प्रभो! (तूतुजानः) = शीघ्रता से कार्यों को करते हुए अथवा खूब ही शत्रुओं का हिंसन करते हुए (ईशान:) = सबके स्वामी (कियेधा:) = अपरिमित बल को धारण करनेवाले [कियत् धा नि० ६.२०] आप (अस्मै वृत्राय) = इस ज्ञान की आवरणभूत वासना के लिए (इत् उ) = निश्चय से (वज्रं प्रभरा) = वज्र का प्रहार कीजिए। वज्र-प्रहार से इस वृत्र को समास करके हमारे लिए ज्ञान का प्रकाश कीजिए। २. (गो: पर्व न) = गौ के एक-एक पर्व की तरह इस वेदवाणीरूप गौ के पौं को (विरदा) = विच्छिन्न कीजिए। एक-एक शब्द का निर्वचन करते हुए उसके भाव को स्पष्ट कीजिए। हे प्रभो! आप (अर्णांसि) = रेत:कणरूप जलों को (तिरश्चा) = [तिरः अञ्च] तिरोहित गतिवाले रूप में (इष्यन्) = प्रेरित करते हुए (अपां चरध्यै) = ज्ञान-जलों के चरण के लिए हों। प्रभु के अनुग्रह से हमारे शरीर में रेत:कण रुधिर में इसप्रकार व्याप्त रहें जैसेकि दूध में घृतकण रहते हैं। इसप्रकार सुरक्षित रेत:कण बुद्धि को दीस करनेवाले हों और हमारे जीवन में ज्ञान की धाराओं का प्रवाह बहे।
भावार्थ - प्रभु हमारी वासनाओं को विनष्ट करें। हमें वेद के अन्तर्निहित तत्त्वों को समझने के योग्य बनाएँ। सुरक्षित रेत:कण हमारी बुद्धियों को दीस करें और हममें ज्ञानजलों का प्रवाह प्रवाहित हो।
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