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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 35

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 35/ मन्त्र 9
    सूक्त - नोधाः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३५

    अ॒स्येदे॒व प्र रि॑रिचे महि॒त्वं दि॒वस्पृ॑थि॒व्याः पर्य॒न्तरि॑क्षात्। स्व॒राडिन्द्रो॒ दम॒ आ वि॒श्वगू॑र्तः स्व॒रिरम॑त्रो ववक्षे॒ रणा॑य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्य । इत् । ए॒व । प्र । रि॒रि॒चे । म॒हि॒ऽत्वम् । दि॒व: । पृ॒थि॒व्या: । परि॑ । अ॒न्तरि॑क्षात् ॥ स्व॒ऽराट् । इन्द्र॑: । दमे॑ । आ । वि॒श्वऽगू॑र्त: । सु॒ऽअ॒रि: । अम॑त्र: । व॒व॒क्षे॒ । रणा॑य ॥३५.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्येदेव प्र रिरिचे महित्वं दिवस्पृथिव्याः पर्यन्तरिक्षात्। स्वराडिन्द्रो दम आ विश्वगूर्तः स्वरिरमत्रो ववक्षे रणाय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्य । इत् । एव । प्र । रिरिचे । महिऽत्वम् । दिव: । पृथिव्या: । परि । अन्तरिक्षात् ॥ स्वऽराट् । इन्द्र: । दमे । आ । विश्वऽगूर्त: । सुऽअरि: । अमत्र: । ववक्षे । रणाय ॥३५.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 35; मन्त्र » 9

    पदार्थ -
    १. (अस्य) = इस प्रभु की (महित्वम्) = महिमा (इत् एव) = निश्चय से ही (दिवः पृथिव्या:) = द्युलोक से व पृथिवीलोक से (प्ररिरिचे) = बढ़ी हुई है। वह प्रभु द्यावापृथिवी से व्याप्त नहीं किये जाते। (अन्तरिक्षात् परि) = अन्तरिक्ष से भी उस प्रभु की महिमा ऊपर है-बढ़ी हुई है। ये सब लोकत्रयी प्रभ के एक देश में ही समायी हुई है [पादोऽस्य विश्वा भूतानि]। २. वे (इन्द्रः) = सर्वशक्तिमान् प्रभु (स्वराट) = स्वयं देदीप्यमान हैं, व अपना शासन स्वयं करनेवाले हैं। (दमे) = इसप्रकार दमन के होने पर वे प्रभु (आ) = समन्तात् (विश्वगूर्त:) = सब उद्यमोंवाले हैं। यह सारा संसार प्रभु की हो रचना है। प्रभु के शासन में ही सारा संसार गतिवाला होता है। ३. वे प्रभु (स्वरि:) = [सु अरिः] उत्तम आक्रान्ता हैं, शत्रुओं पर आक्रमण करनेवाले हैं। (अमत्र:) = [अमत्र] गति के द्वारा सबका रक्षण करनेवाले हैं। ये प्रभु (रणाय) = रमणीय संग्राम के लिए (ववक्षे) = स्तोता को शक्तिशाली बनाते हैं। [वक्ष् to be powerful]|

    भावार्थ - प्रभु की महिमा त्रिलोकी से व्याप्त नहीं की जाती। प्रभु स्वराट् हैं। स्तोता को शत्रुओं के साथ युद्ध के लिए शक्तिशाली बनाते हैं।

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