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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 35

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 35/ मन्त्र 4
    सूक्त - नोधाः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३५

    अ॒स्मा इदु॒ स्तोमं॒ सं हि॑नोमि॒ रथं॒ न तष्टे॑व॒ तत्सि॑नाय। गिर॑श्च॒ गिर्वा॑हसे सुवृ॒क्तीन्द्रा॑य विश्वमि॒न्वं मेधि॑राय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्मै । इत् । ऊं॒ इति॑ । स्तोम॑म् । सम् । हि॒नो॒मि॒ । रथ॑म् । न । तष्टा॑ऽइव । तत्ऽसि॑नाय ॥ गिर॑: । च॒ । गिर्वा॑हसे । सु॒ऽवृ॒क्ति । इन्द्रा॑य । वि॒श्व॒म्ऽइ॒न्वम् । मेध‍ि॑राय ॥३५.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्मा इदु स्तोमं सं हिनोमि रथं न तष्टेव तत्सिनाय। गिरश्च गिर्वाहसे सुवृक्तीन्द्राय विश्वमिन्वं मेधिराय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्मै । इत् । ऊं इति । स्तोमम् । सम् । हिनोमि । रथम् । न । तष्टाऽइव । तत्ऽसिनाय ॥ गिर: । च । गिर्वाहसे । सुऽवृक्ति । इन्द्राय । विश्वम्ऽइन्वम् । मेध‍िराय ॥३५.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 35; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    १. (इव) = जैसे (तष्टा) = बढ़ई (तत्सिनाय) = [तेन सिनम् अन्नं यस्य] रथ द्वारा आजीविका करनेवाले (स्थ) = स्वामी के लिए (रथम्) = रथ को प्राप्त कराता है, इसी प्रकार मैं भी (अस्मै) = इस प्रभु के लिए (इत् उ) = निश्चय से (स्तोमं संहिनोमि) = स्तुति को प्राप्त कराता हूँ। २. (च) = और (गिर्वाहसे) = ज्ञान की वाणियों को धारण करनेवाले प्रभु के लिए (गिरः) = इन ज्ञानपूर्वक उच्चरित स्तुतिवाणियों को प्राप्त कराता हूँ। उस (मेधिराय) = [मेध-यज्ञम्] यज्ञ के योग्य अथवा मेधावी (इन्द्राय) = परमैश्वर्यशाली प्रभु के लिए (विश्वमिन्वम्) = सब गुणों का व्यापन करनेवाली (सुवृक्ति) = सम्यक् पापों का वर्जन करनेवाली स्तुति को प्रेरित करता हूँ।

    भावार्थ - प्रभु-प्राप्ति के लिए मैं ज्ञान व स्तुति को अपनाता हूँ।

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