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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 35

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 35/ मन्त्र 7
    सूक्त - नोधाः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३५

    अ॒स्येदु॑ मा॒तुः सव॑नेषु स॒द्यो म॒हः पि॒तुं प॑पि॒वां चार्वन्ना॑। मु॑षा॒यद्विष्णुः॑ पच॒तं सही॑या॒न्विध्य॑द्वरा॒हं ति॒रो अद्रि॒मस्ता॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्य । इत् । ऊं॒ इति॑ । मा॒तु: । सव॑नेषु । स॒द्य: । म॒ह: । पि॒तुम् । प॒पि॒ऽवान् । चारु॑ । अन्ना॑ ॥ मु॒षा॒यत् । विष्णु॑: । प॒च॒तम् । सही॑यान् । विध्य॑त् । व॒रा॒हम् । ति॒र: । अद्रि॑म् । अस्ता॑ ॥३५.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्येदु मातुः सवनेषु सद्यो महः पितुं पपिवां चार्वन्ना। मुषायद्विष्णुः पचतं सहीयान्विध्यद्वराहं तिरो अद्रिमस्ता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्य । इत् । ऊं इति । मातु: । सवनेषु । सद्य: । मह: । पितुम् । पपिऽवान् । चारु । अन्ना ॥ मुषायत् । विष्णु: । पचतम् । सहीयान् । विध्यत् । वराहम् । तिर: । अद्रिम् । अस्ता ॥३५.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 35; मन्त्र » 7

    पदार्थ -
    १. (अस्य इत् उ मातु:) = इसी निश्चय से, गतमन्त्र के अनुसार, वन का निर्माण करनेवाले के (सवनेषु) = उत्पादनों के निमित्त, अर्थात् प्रभु के दर्शन के निमित्त [प्रथम शक्तिमान् के रूप में, फिर बुद्धिमान् के रूप में और अन्ततः दयालुरूप में दर्शन के निमित्त] (सद्य:) = शीघ्र ही (महः पितुम्) = तेजस्विता के रक्षक सोम का यह उपासक (पपिवान्) = पीनेवाला होता है। शरीर में सुरक्षित सोम ही जानाग्नि को दीप्त करके प्रभु का दर्शन कराएगा। इस सोम के रक्षण के लिए ही यह उपासक (चारु अन्ना) = सुन्दर सात्त्विक अन्नों का ग्रहण करता है। २. सोम-रक्षण द्वारा (विष्णुः) = व्यापक उन्नति करनेवाला-'शरीर-मन-मस्तिष्क' तीनों को उन्नत करनेवाला-यह उपासक (सहीयान्) = शत्रुओं का अतिशयेन अभिभव करता है तथा (पचतम्) = 'अन्न से रस, रस से रुधिर, रुधिर से मांस, मांस से मेदस, मेदस् से अस्थि, अस्थि से मज्जा, मज्जा से शुक्र' इसप्रकार परिपक्व हए हुए इस वीर्य को (मुषायत्) = चुरा लेता है। प्रभु ने इसे अन्न में छिपाकर रखा है, यह विष्णु इसका अपहरण कर लेता है। यह (वराहम्) = [मेघ-वृत्रम्, वरं वरं आहन्ति]-ज्ञान की आवरणभूत अच्छी बातों को नष्ट करनेवाली-वासना को (विध्यद) = बींधता हुआ (अगिम्) = अविद्यापर्वत को (तिर: अस्ता) = सूदूर [across, beyond], सात समुद्रपार फेंकनेवाला होता है।

    भावार्थ - हम प्रभु-दर्शन के निमित्त सोम का रक्षण करें। सोम-रक्षण के लिए सात्त्विक अन्न का सेवन करें। वासना को विनष्ट करके अविद्या को परे फेंकें और सोम-रक्षण के योग्य बनें।

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