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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 35

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 35/ मन्त्र 6
    सूक्त - नोधाः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३५

    अ॒स्मा इदु॒ त्वष्टा॑ तक्ष॒द्वज्रं॒ स्वप॑स्तमं स्व॒र्यं रणा॑य। वृ॒त्रस्य॑ चिद्वि॒दद्येन॒ मर्म॑ तु॒जन्नीशा॑नस्तुज॒ता कि॑ये॒धाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्मै । इत् । ऊं॒ इति॑ । त्वष्टा॑ । त॒क्ष॒त् । वज्र॑म् । स्वप॑:ऽतमम् । स्व॒र्य॑म् । रणा॑य ॥ वृ॒त्रस्य॑ । चि॒त् । वि॒दत् । येन॑ । मर्म॑ । तु॒जन् । ईशा॑न: । तु॒ज॒ता । कि॒ये॒धा: ॥३५.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्मा इदु त्वष्टा तक्षद्वज्रं स्वपस्तमं स्वर्यं रणाय। वृत्रस्य चिद्विदद्येन मर्म तुजन्नीशानस्तुजता कियेधाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्मै । इत् । ऊं इति । त्वष्टा । तक्षत् । वज्रम् । स्वप:ऽतमम् । स्वर्यम् । रणाय ॥ वृत्रस्य । चित् । विदत् । येन । मर्म । तुजन् । ईशान: । तुजता । कियेधा: ॥३५.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 35; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    १. (त्वष्टा) = वह देवशिल्पी प्रभु (अस्मा इत्) = इस उपासक के लिए निश्चय से (वज्रम्) = क्रियाशीलता रूप वन को (तक्षत्) = निर्मित करता है। यह वन (स्वपस्तमम्) = अतिशयेन उत्कृष्ट कौवाला है तथा (स्वर्यम्) = स्तुत्य व शत्रुओं को सन्तप्त करनेवाला है ['स्व' शब्दोपतापयोः] । इसप्रकार उत्तम कर्मों में प्रवृत्त करके तथा शत्रुओं को विनष्ट करके यह वज्र (रणाय) = जीवन की रमणीयता के लिए होता है। २. यह (कियेथाः) = [क्रममाणधा: नि ६.२०] आक्रमण करनेवाले शत्रुओं का निग्रह करनेवाला, (ईशान:) = जितेन्द्रिय पुरुष (तुजता येन) = शत्रुओं का संहार करनेवाले जिस वज्र के द्वारा (तुजन्) = शत्रुसंहार करता हुआ (चित्) = निश्चय से (वृत्रस्य) = ज्ञान की आवरणभूत वासना के (मर्म विदत्) = मर्मस्थल को प्राप्त करता है। वृत्र के मर्म पर प्रहार करता हुआ यह वृत्र का विनाश कर डालता है। वृत्र-विनाश से ही अपने जीवन में उत्तम कर्मों को करता हुआ प्रभु को प्राप्त करनेवाला होता है।

    भावार्थ - प्रभु हमें क्रियाशीलतारूप वन प्राप्त कराते हैं। इसके द्वारा बासनाओं को विनष्ट करके हम रमणीय जीवनवाले बनते हैं।

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