अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 35/ मन्त्र 8
अ॒स्मा इदु॒ ग्नाश्चि॑द्दे॒वप॑त्नी॒रिन्द्रा॑या॒र्कम॑हि॒हत्य॑ ऊवुः। परि॒ द्यावा॑पृथि॒वी ज॑भ्र उ॒र्वी नास्य॒ ते म॑हि॒मानं॒ परि॑ ष्टः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्मै । इत् । ऊं॒ इति॑ । ग्ना: । चि॒त् । दे॒वऽप॑त्नी: । इन्द्रा॑य । अ॒र्कम् । अ॒हि॒ऽहत्ये॑ । ऊ॒वु॒रित्यू॑वु: ॥ परि॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । ज॒भ्रे॒ । उ॒र्वी इति॑ । न । अ॒स्य॒ । ते इति॑ । म॒हि॒मान॑म् । परि॑ । स्त॒ इति॑ स्त: ॥३५.८॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्मा इदु ग्नाश्चिद्देवपत्नीरिन्द्रायार्कमहिहत्य ऊवुः। परि द्यावापृथिवी जभ्र उर्वी नास्य ते महिमानं परि ष्टः ॥
स्वर रहित पद पाठअस्मै । इत् । ऊं इति । ग्ना: । चित् । देवऽपत्नी: । इन्द्राय । अर्कम् । अहिऽहत्ये । ऊवुरित्यूवु: ॥ परि । द्यावापृथिवी इति । जभ्रे । उर्वी इति । न । अस्य । ते इति । महिमानम् । परि । स्त इति स्त: ॥३५.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 35; मन्त्र » 8
विषय - वेदवाणियों द्वारा प्रभु-स्तवन
पदार्थ -
१. (अस्मै इन्द्राय इत् उ) = इस जितेन्द्रिय पुरुष के लिए ही (देवपत्नी:) = दिव्यगणों का पालन करनेवाली (ग्नाः चित्) = गायत्री आदि छन्दोमयी वेदवाणियाँ निश्चय से (अहिहत्ये) = ज्ञान की आवरणभूत वासना के विनाश के निमित्त (अर्कम्) = स्तुतिसाधन मन्त्रों को (ऊचु:) = [अतन्वत] विस्तृत करती हैं। इन वेदवाणियों के द्वारा प्रभु का स्तवन करता हुआ यह स्तोता वासनाओं का शिकार नहीं होता। २. यह इस रूप में प्रभु का स्तवन करता है कि वे प्रभु (उर्वी) = इन विस्तृत (द्यावापृथिवी) = द्यावापृथिवी को (परिजभे) = [ह-Win over] विजय करनेवाले हैं अथवा [ह-to lead] प्रभु इन्हें गति देते हैं [भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया] । (ते) = वे द्यावापृथिवी (अस्य महिमानम्) = इसकी महिमा को (न परि स्त:) = चारों ओर से व्याप्त नहीं कर पाते, प्रभु इन्हें व्याप्त करके बाहर भी विद्यमान हैं[एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः]। इसप्रकार प्रभु-स्तवन करता हुआ यह व्यक्ति वासनाओं से पराभूत नहीं होता।
भावार्थ - वेदवाणियाँ हमारे लिए प्रभु-स्तोत्रों को उपस्थित करती हैं। इनसे प्रभु-स्तवन करता हुआ यह स्तोता वासना का विनाश कर पाता है।
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