अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 35/ मन्त्र 13
अ॒स्येदु॒ प्र ब्रू॑हि पू॒र्व्याणि॑ तु॒रस्य॒ कर्मा॑णि॒ नव्य॑ उ॒क्थैः। यु॒धे यदि॑ष्णा॒न आयु॑धान्यृघा॒यमा॑णो निरि॒णाति॒ शत्रू॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्य । इत् । ऊं॒ इंति॑ । प्र । ब्रू॒हि॒ । पू॒र्व्याणि॑ । तु॒रस्य॑ । कर्मा॑णि । नव्य॑: । उ॒थ्यै: ॥ यु॒धे । यत् । इ॒ष्णा॒न: । आयु॑धानि । ऋ॒धा॒यमा॑ण: । नि॒ऽरि॒णाति॑ ॥३५.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्येदु प्र ब्रूहि पूर्व्याणि तुरस्य कर्माणि नव्य उक्थैः। युधे यदिष्णान आयुधान्यृघायमाणो निरिणाति शत्रून् ॥
स्वर रहित पद पाठअस्य । इत् । ऊं इंति । प्र । ब्रूहि । पूर्व्याणि । तुरस्य । कर्माणि । नव्य: । उथ्यै: ॥ युधे । यत् । इष्णान: । आयुधानि । ऋधायमाण: । निऽरिणाति ॥३५.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 35; मन्त्र » 13
विषय - शत्रुसंहार के लिए अस्त्र-प्राप्ति
पदार्थ -
१.(अस्य) = इस (तुरस्य) = त्वरा से कार्यों को करनेवाले अथवा शत्रुओं का संहार करनेवाले प्रभु के (इत् उ) = ही निश्चय से (पूर्व्याणि) = पालन व पूरण में उत्तम (कर्माणि) = कमों को (प्रवहि) = व्यक्त रूप से कहनेवाला बन। ये प्रभु ही (उक्थैः) = स्तोत्रों के द्वारा (नव्य) = स्तुतिके योग्य हैं। प्रभु का ही स्तवन करना योग्य है। २. वे प्रभु ही (युधे) = वासनाओं के साथ संग्राम के लिए (यत्) = जब (आयुधानि) = 'ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय, मन व बुद्धि' रूप आयुधों को (इष्णान:) = प्रेरित करते हैं तब (शत्रून् ऋघायमाण:) = शत्रुओं को हिंसित करते हुए (निरिणाति) = [Drive out, expel] हमारे जीवनों से बाहिर कर देते हैं। प्रभु हमें इन्द्रियाँ, मन व बुद्धिरूप अस्त्रों को प्राप्त कराके इस योग्य बनाते हैं कि हम वासनारूप शत्रुओं को अपने से दूर कर सकें।