अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 92/ मन्त्र 4
उद्यद्ब्र॒ध्नस्य॑ वि॒ष्टपं॑ गृ॒हमिन्द्र॑श्च॒ गन्व॑हि। मध्वः॑ पी॒त्वा स॑चेवहि॒ त्रिः स॒प्त सख्युः॑ प॒दे ॥
स्वर सहित पद पाठउत् ।यत् । ब्र॒ध्नस्य॑ । वि॒ष्टप॑म् । गृ॒हम् । इन्द्र॑: । च॒ । गन्व॑हि ॥ मध्व॑: । पी॒त्वा । स॒चे॒व॒हि॒ । त्रि । स॒प्त । सख्यु॑: । प0952गदे ॥९२.४॥
स्वर रहित मन्त्र
उद्यद्ब्रध्नस्य विष्टपं गृहमिन्द्रश्च गन्वहि। मध्वः पीत्वा सचेवहि त्रिः सप्त सख्युः पदे ॥
स्वर रहित पद पाठउत् ।यत् । ब्रध्नस्य । विष्टपम् । गृहम् । इन्द्र: । च । गन्वहि ॥ मध्व: । पीत्वा । सचेवहि । त्रि । सप्त । सख्यु: । प0952गदे ॥९२.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 92; मन्त्र » 4
विषय - सख्युः पदे
पदार्थ -
१. घर में पत्नी यह कामना करती है कि मैं (च) = और (इन्द्रः) = मेरा यह जितेन्द्रिय पति हम दोनों ही (उत्) = उत्कृष्ट (यत्) = जो (बध्नस्य विष्टपम्) = सूर्य के तापशून्य अथवा विशिष्ट रूप से दीप्त (गृहे) = गृह को (गन्वहि) = जाएँ, अर्थात् हमारे घर में सूर्य की किरणें व प्रकाश बहुत ही अच्छी तरह आएँ। सूर्यकिरणें इस गृह को तापशून्य व नीरोग बनानेवाली हों। २. (मध्वः पीत्वा) = इस गृह में रहते हुए हम सोम का पान करके (सख्युः पदे) = परमसखा उस प्रभु के चरणों में (त्रि:सप्त) = इक्कीस शक्तियों को (सचेवहि) = प्राप्त करें।
भावार्थ - हमारे घर सूर्यकिरणों से प्रकाशित हों। इनमें हम प्रभु का स्मरण करते हुए सोमरक्षण द्वारा शरीर की सब शक्तियों को स्थिर रखें।
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