अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 92/ मन्त्र 12
अ॑र्भ॒को न कु॑मार॒कोऽधि॑ तिष्ठ॒न्नवं॒ रथ॑म्। स प॑क्षन्महि॒षं मृ॒गं पि॒त्रे मा॒त्रे वि॑भु॒क्रतु॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒र्भ॒क: । न । कु॒मा॒र॒क: । अधि॑ । ति॒ष्ठ॒त् । नव॑म् । रथ॑म् ॥ स: । प॒क्ष॒त् । म॒हि॒षम् । मृ॒गम् । पि॒त्रे । मा॒त्रे । वि॒भुऽक्रतु॑म् ॥९२.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
अर्भको न कुमारकोऽधि तिष्ठन्नवं रथम्। स पक्षन्महिषं मृगं पित्रे मात्रे विभुक्रतुम् ॥
स्वर रहित पद पाठअर्भक: । न । कुमारक: । अधि । तिष्ठत् । नवम् । रथम् ॥ स: । पक्षत् । महिषम् । मृगम् । पित्रे । मात्रे । विभुऽक्रतुम् ॥९२.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 92; मन्त्र » 12
विषय - अर्भकः न, कुमारक:
पदार्थ -
१. जीव को चाहिए कि (अर्भकः न) = एक छोटे बालक के समान हो। (कुमारक:) = वे सब क्रीडा करनेवाले हों। एक बालक के समान निर्दोष व्यवहारवाला हो-व्यर्थ में चुस्त-चालाक न बने। साथ ही क्रीडक की मनोवृत्तिवाला हो-खिझे नहीं। (नवं रथम् अधितिष्ठन्) = इस स्तुत्य [न स्तुतौ] व गतिशील [नव गती] शरीर-रथ पर आरूढ़ होता हुआ (स:) = वह (पित्रे मात्रे) = पिता व माता के लिए उस (महिषम) = पूजनीय [मह पूजायाम्] (मृगम्) = अन्वेषणीय (विभुक्रतम्) = सर्वव्यापक व प्रज्ञानस्वरूप प्रभु को (पक्षत्) = परिगृहीत करे। [पक्ष परिग्रहे]।
भावार्थ - हम बालकों की भाँति निर्दोष जीवनवाले बनें। शरीररूप रथ को स्तुत्य व गतिशील बनाएँ। प्रभु को ही माता व पिता समझें। ये प्रभु पूज्य हैं, अन्वेषणीय है, सर्वव्यापक व प्रज्ञानस्वरूप हैं।
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