अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 92/ मन्त्र 14
तं घे॑मि॒त्था न॑म॒स्विन॒ उप॑ स्व॒राज॑मासते। अर्थं॑ चिदस्य॒ सुधि॑तं॒ यदेत॑व आव॒र्तय॑न्ति दा॒वने॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । घ॒ । ई॒म् । इ॒त्था । न॒म॒स्विन॑: । उप॑ । स्व॒ऽराज॑म् । आ॒स॒ते॒ ॥ अर्थ॑म् । चि॒त् । अ॒स्य॒ । सुऽधि॑तम् । यत् । एत॑वे । आ॒ऽव॒र्तय॑न्ति । दा॒वने॑ ॥९२.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
तं घेमित्था नमस्विन उप स्वराजमासते। अर्थं चिदस्य सुधितं यदेतव आवर्तयन्ति दावने ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । घ । ईम् । इत्था । नमस्विन: । उप । स्वऽराजम् । आसते ॥ अर्थम् । चित् । अस्य । सुऽधितम् । यत् । एतवे । आऽवर्तयन्ति । दावने ॥९२.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 92; मन्त्र » 14
विषय - सुधित अर्थ
पदार्थ -
१. (तं स्वराजम्) = उस स्वयं देदीप्यमान प्रभु को (इत्था) = सचमुच (घा ईम्) = निश्चय से (नमस्विन:) = नमस्कारवाले (उपासते) = उपासित करते हैं। २. (अस्य) = इस उपासक का (अर्थम) = प्राप्तव्य धन (चित्) = निश्चय से (सुथितम्) = सम्यक् स्थापित होता है। (यत्) = जो धन (एतवे) = जीवन के कार्यों को संचालित करने के लिए होता है और (दावने) = इस धन को वे हवि आदि देने के लिए (आवर्तयन्ति) = आवृत्त करते हैं, अर्थात् इस धन का वे सदा यज्ञों में विनियोग करते हैं।
भावार्थ - नमन से युक्त होकर हम प्रभु का उपासन करें। प्रभु हमें धन देते हैं। यह धन सदा उत्तम साधनों से कमाया जाए। जीवन-यात्रा की पूर्ति के लिए उपयुक्त किया जाता हुआ धन सदा दान में विनियुक्त हो।
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