अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 92/ मन्त्र 16
यो राजा॑ चर्षणी॒नां याता॒ रथे॑भि॒रध्रि॑गुः। विश्वा॑सां तरु॒ता पृत॑नानां॒ ज्येष्ठो॒ यो वृ॑त्र॒हा गृ॒णे ॥
स्वर सहित पद पाठय: । राजा॑ । च॒र्ष॒णी॒नाम् । याता॑ । रथे॑भि: । अध्रि॑:ऽगु: । विश्वा॑साम् । त॒रु॒ता । पृत॑नानाम् । ज्येष्ठ॑: । य: । वृ॒त्र॒ऽहा । गृ॒णे ॥९२.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
यो राजा चर्षणीनां याता रथेभिरध्रिगुः। विश्वासां तरुता पृतनानां ज्येष्ठो यो वृत्रहा गृणे ॥
स्वर रहित पद पाठय: । राजा । चर्षणीनाम् । याता । रथेभि: । अध्रि:ऽगु: । विश्वासाम् । तरुता । पृतनानाम् । ज्येष्ठ: । य: । वृत्रऽहा । गृणे ॥९२.१६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 92; मन्त्र » 16
विषय - 'ज्येष्ठ वृत्रहा' प्रभु का स्तवन
पदार्थ -
१. मैं उस प्रभु का गृणे-स्तवन करता हूँ य:-जोकि चर्षणीनां राजा-श्रमशील मनुष्यों के जीवन को दीस बनानेवाला है। रथेभिः याता-शरीररूप रथों से हमें प्राप्त हानेवाला है, अर्थात् हमारे लिए उत्तम शरीर-रथों को देनेवाला है। अधिगुः-अधूत गमनवाला है-प्रभु को अपने कार्यों में कोई विहत नहीं कर सकता। २. ये प्रभु ही विश्वासाम्-सब पृतनानाम्-शत्रुसैन्यों के तरुता-तैरजानेवाले हैं। हमें शत्रुसैन्यों पर विजय प्राप्त करानेवाले हैं। ज्येष्ठ: प्रशस्यतम हैं। वृत्रहा-ज्ञान की आवरणभूत वासना को विनष्ट करनेवाले हैं।
भावार्थ - हम प्रभु का स्तवन करते हैं। प्रभु हमें वासनारूप शत्रुओं को पराजित करने में समर्थ करते हैं। वे हमें उत्तम शरीर-रथों को प्राप्त कराते हैं और हमारे जीवनों को दीप्त करते हैं।
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