अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 92/ मन्त्र 8
सूक्त - प्रियमेधः
देवता - विश्वेदेवाः, वरुणः
छन्दः - पङ्क्तिः
सूक्तम् - सूक्त-९२
अपा॒दिन्द्रो॒ अपा॑द॒ग्निर्विश्वे॑ दे॒वा अ॑मत्सत। वरु॑ण॒ इदि॒ह क्ष॑य॒त्तमापो॑ अ॒भ्यनूषत व॒त्सं सं॒शिश्व॑रीरिव ॥
स्वर सहित पद पाठअपा॑त् । इन्द्र॑: । अपा॑त् । अ॒ग्नि: । विश्वे॑ । दे॒वा: । अ॒म॒त्स॒त॒ ॥ वरु॑ण: । इत् । इह । क्ष॒य॒त् । तम् । आप॑: । अ॒भि । अ॒नू॒ष॒त॒ । व॒त्सम् । सं॒शिश्व॑री:ऽइव ॥९२.८॥
स्वर रहित मन्त्र
अपादिन्द्रो अपादग्निर्विश्वे देवा अमत्सत। वरुण इदिह क्षयत्तमापो अभ्यनूषत वत्सं संशिश्वरीरिव ॥
स्वर रहित पद पाठअपात् । इन्द्र: । अपात् । अग्नि: । विश्वे । देवा: । अमत्सत ॥ वरुण: । इत् । इह । क्षयत् । तम् । आप: । अभि । अनूषत । वत्सम् । संशिश्वरी:ऽइव ॥९२.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 92; मन्त्र » 8
विषय - 'इन्द्र-अग्नि -देव'
पदार्थ -
१. (इन्द्रः) = एक जितेन्द्रिय पुरुष (अपात्) = इस सोम का पान करता है। (अग्नि:) = प्रगतिशील पुरुष (अपात्) = इसको पीता है। (विश्वेदेवाः) = सब देव इस सोमपान में (अमत्सत) = हर्ष का अनुभव करते हैं। २. (वरुण:) = वह पापनिवारक प्रभु (इत्) = निश्चय से (इह) = इस सोमपान करनेवाले के जीवन में (क्षयत्) = निवास करता है। (तम्) = उस प्रभु को (आपः) = कर्मों में व्याप्त होनेवाली प्रजाएँ (अभ्यनूषत) = स्तुत करती है। उसी प्रकार स्तुत करती है, (इव) = जैसेकि (संशिश्वरी:) = उत्तम बछड़ोंवाली गाएँ (वत्सम्) = बिछड़े के प्रति जाती हुई शब्द करती हैं। इसी प्रकार प्रेम से पूर्ण होकर कर्मों में व्याप्त होनेवाली ये प्रजाएँ अपने प्रिय प्रभु के प्रति स्तुति शब्दों को बोलती हैं।
भावार्थ - सोमपान हमें 'इन्द्र, अग्नि व देव' बनता है-शरीर में सबल [इन्द्र], मस्तिष्क में प्रकाशमय [अग्नि] तथा मन में 'देव'। सोमपान करनेवालों में ही परमात्मा का निवास होता है। ये कर्मों में व्यास रहकर सदा प्रभु का स्मरण करते हैं।
इस भाष्य को एडिट करें