अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 92/ मन्त्र 15
अनु॑ प्र॒त्नस्यौक॑सः प्रि॒यमे॑धास एषाम्। पूर्वा॒मनु॒ प्रय॑तिं वृ॒क्तब॑र्हिषो हि॒तप्र॑यस आशत ॥
स्वर सहित पद पाठअनु॑ । प्र॒त्नस्य॑ । ओक॑स: । प्रि॒यऽमे॑धास: । ए॒षा॒म् ॥ पूर्वा॑म् । अनु॑ । प्रऽय॑तिम् । वृ॒क्तऽब॑र्हिष । हि॒तऽप्र॑यस: । आ॒श॒त॒ ॥९२.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
अनु प्रत्नस्यौकसः प्रियमेधास एषाम्। पूर्वामनु प्रयतिं वृक्तबर्हिषो हितप्रयस आशत ॥
स्वर रहित पद पाठअनु । प्रत्नस्य । ओकस: । प्रियऽमेधास: । एषाम् ॥ पूर्वाम् । अनु । प्रऽयतिम् । वृक्तऽबर्हिष । हितऽप्रयस: । आशत ॥९२.१५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 92; मन्त्र » 15
विषय - प्रियमेधासः, वृक्तबर्हिषः, हितप्रयसः
पदार्थ -
१. (प्रियमेधास:) = बुद्धि के साथ प्रेमवाले लोग (एषाम्) = इनके, अर्थात् अपने (प्रत्नस्य ओकसः अनु) = सनातन गृह का लक्ष्य करके (वृक्तबर्हिषः) = हृदयरूप क्षेत्र को वासनारूप घास से रहित करनेवाले होते हैं। २. ये (हितप्रयस:) = सदा हितकर उद्योगों में लगे हुए (पूर्वाम्) = सर्वमुख्य अथवा पालन व पूरण करनेवाली (प्रयतिम्) = दान की प्रक्रिया को (अनु आशत) = व्याप्त करते हैं, अर्थात् सदा दानशील होते हैं।
भावार्थ - ब्रह्मलोकरूप अपने सनातन गृह को प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि हम "प्रियमेध', बुद्धिप्रिय बनें। हृदयक्षेत्र में से हम वासनाओं के घास-फूस को उखाड़ डालें। सदा हितकर उद्योगों में लगे रहें।
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