अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 18/ मन्त्र 11
सूक्त - मयोभूः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
गौरे॒व तान्ह॒न्यमा॑ना वैतह॒व्याँ अवा॑तिरत्। ये केस॑रप्राबन्धायाश्चर॒माजा॒मपे॑चिरन् ॥
स्वर सहित पद पाठगौ: । ए॒व । तान् । ह॒न्यमा॑ना । वै॒त॒ऽह॒व्यान् । अव॑ । अ॒ति॒र॒त् ।ये । केस॑रऽप्राबन्धाया: । च॒र॒म॒ऽअजा॑म् । अपे॑चिरन् ॥१८.११॥
स्वर रहित मन्त्र
गौरेव तान्हन्यमाना वैतहव्याँ अवातिरत्। ये केसरप्राबन्धायाश्चरमाजामपेचिरन् ॥
स्वर रहित पद पाठगौ: । एव । तान् । हन्यमाना । वैतऽहव्यान् । अव । अतिरत् ।ये । केसरऽप्राबन्धाया: । चरमऽअजाम् । अपेचिरन् ॥१८.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 18; मन्त्र » 11
विषय - केसरप्राबन्धा वाणी
पदार्थ -
१. (गौः एव) = यह ब्राह्मण की ज्ञानरूप गौ ही (हन्यमाना) = मारी जाती हुई (तान् वैतहव्यान्) = उन कर-प्राप्त धनों को खा जानेवाले-अपने विलास में व्यय कर डालनेवाले राजाओं को (अवातिरत्) = मार डालती है। २. उन वैतहव्यों को यह वाणी नष्ट कर देती है, (ये) = जो (केसरप्रा-बन्धाया:) = [के+सर+प्र। अबन्धा] सुख-प्रसार के लिए बन्धनरहित, अर्थात् निश्चितरूप से सुख प्राप्त करानेवाली जानी ब्रह्मण की वाणी की (चरमाजाम्) = [चरमा अजा-गतिक्षेपणयोः] अन्तिम चेतावनी को भी (अपेचिरन्) = पचा डालते हैं-हजम कर जाते हैं, अर्थात् उसे भी नहीं सुनते।
भावार्थ -
जो प्रजा से दिये गये कर को विलास में व्यय करनेवाले राजा हैं और ज्ञानियों से दी गई चेतावनी की परवाह नहीं करते, वे अन्तत: विनष्ट हो जाते हैं।
इस भाष्य को एडिट करें