अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 18/ मन्त्र 10
सूक्त - मयोभूः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
ये स॒हस्र॒मरा॑ज॒न्नास॑न्दशश॒ता उ॒त। ते ब्रा॑ह्म॒णस्य॒ गां ज॒ग्ध्वा वै॑तह॒व्याः परा॑भवन् ॥
स्वर सहित पद पाठये । स॒हस्र॑म् । अरा॑जन् । आस॑न् । द॒श॒ऽश॒ता: । उ॒त । ते । ब्रा॒ह्म॒णस्य॑ । गाम् । ज॒ग्ध्वा । वै॒त॒ऽह॒व्या: । परा॑ । अ॒भ॒व॒न् ॥१८.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
ये सहस्रमराजन्नासन्दशशता उत। ते ब्राह्मणस्य गां जग्ध्वा वैतहव्याः पराभवन् ॥
स्वर रहित पद पाठये । सहस्रम् । अराजन् । आसन् । दशऽशता: । उत । ते । ब्राह्मणस्य । गाम् । जग्ध्वा । वैतऽहव्या: । परा । अभवन् ॥१८.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 18; मन्त्र » 10
विषय - वैतहव्यों का पराभव
पदार्थ -
१.(ये) = जो (वैतहव्याः) = दान-योग्य हव्यपदार्थों को स्वयं खा जानेवाले-प्रजा से प्राप्त 'कर' को प्रजाहित में विनियुक्त न करके अपनी मौज में व्यय करनेवाले राजा (सहस्त्रम्) = [सहस्-बल] बल-सम्पन्न सेना का (अराजन्) = शासन करते थे, (उत) = और स्वयं भी (दशशताः आसन्) = हजारों की संख्या में थे, अर्थात् बड़े परिवार या बन्धुवाले थे, (ते) = वे (ब्राह्मणस्य) = ब्राह्मण की (गां जग्ध्वा) = ज्ञान की वाणी को खाकर (पराभवन्) = पराभूत हो गये। २. ये वैतहव्य राजा कितने भी प्रबल हों यदि ये अपने बल के अभिमान में ज्ञानी ब्राह्मणों की वाणी पर प्रतिबन्ध लगाना चाहेंगे तो इनका पराभव ही होगा।
भावार्थ -
बल के अभिमान में विलासी राजा ब्राह्मणों की वाणी पर प्रतिबन्ध लगाते हैं और परिणामतः विनष्ट हो जाते हैं।
इस भाष्य को एडिट करें