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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 18

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 18/ मन्त्र 13
    सूक्त - मयोभूः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त

    दे॑वपी॒युश्च॑रति॒ मर्त्ये॑षु गरगी॒र्णो भ॑व॒त्यस्थि॑भूयान्। यो ब्रा॑ह्म॒णं दे॒वब॑न्धुं हि॒नस्ति॒ न स पि॑तृ॒याण॒मप्ये॑ति लो॒कम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒व॒ऽपी॒यु: । च॒र॒ति॒ । मर्त्ये॑षु । ग॒र॒ऽगी॒र्ण: । भ॒व॒ति॒ । अस्थि॑ऽभूयान् । य: । ब्र॒ह्मा॒णम् । दे॒वऽब॑न्धुम् । हि॒नस्ति॑ । न । स: । पि॒तृ॒ऽयान॑म् । अपि॑ । ए॒ति॒ । लो॒कम् ॥१८.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवपीयुश्चरति मर्त्येषु गरगीर्णो भवत्यस्थिभूयान्। यो ब्राह्मणं देवबन्धुं हिनस्ति न स पितृयाणमप्येति लोकम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    देवऽपीयु: । चरति । मर्त्येषु । गरऽगीर्ण: । भवति । अस्थिऽभूयान् । य: । ब्रह्माणम् । देवऽबन्धुम् । हिनस्ति । न । स: । पितृऽयानम् । अपि । एति । लोकम् ॥१८.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 18; मन्त्र » 13

    पदार्थ -

    १. (देवपीयुः) = देवों-ज्ञानियों का हिंसन करनेवाला राजा (मर्त्येषु) = मनुष्यों में (गरगीर्णः चरति) = मानो विष पिये हुए घूमता है, अर्थात् उसकी अवस्था वही हो जाती है, जो उस पुरुष की, जिसने कि ग़लती से विष पी लिया हो। यह (अस्थिभूयान् भवति) = हड्डी-हड्डीवाला हो जाता है-अस्थि-पंजर-सा रह जाता है। २. (यः) = जो (देवबन्धुम्) =  प्रभु के मित्र (ब्राह्मणम्) = ज्ञानी पुरुष का (हिनस्ति) = हिंसन करता है, सः वह राजा देवयानलोक को प्राप्त करने की बात तो दूर रही (पितृयाणं लोकं अपि न एति) =  पितृयाणलोक को भी प्राप्त नहीं करता। यदि यह प्रजा का रक्षण करता तभी तो पितृयाणलोक को प्राप्त करता। ब्राह्मणी प्रजा का हिंसन करने से इसके लिए इस लोक की प्राप्ति सम्भव कहाँ? यह तो विनष्ट ही होता है।

    भावार्थ -

    जो राजा देवों का हिंसन करता है, वह विष पिये हुए के समान अस्थि-पंजर सा रह जाता है, इसे उत्तम लोक की प्राप्ति नहीं होती।

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