अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 18/ मन्त्र 7
सूक्त - मयोभूः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
श॒तापा॑ष्ठां॒ नि गि॑रति॒ तां न श॑क्नोति निः॒खिद॑न्। अन्नं॒ यो ब्र॒ह्मणां॑ म॒ल्वः स्वा॒द्वद्मीति॒ मन्य॑ते ॥
स्वर सहित पद पाठश॒तऽअ॑पाष्ठम् । नि । गि॒र॒ति॒ । ताम् । न । श॒क्नो॒ति॒ । नि॒:ऽखिद॑न् । अन्न॑म् । य: । ब्र॒ह्मणा॑म् । म॒ल्व: । स्वा॒दु । अ॒द्मि॒ । इति॑ । मन्य॑ते ॥१८.७॥
स्वर रहित मन्त्र
शतापाष्ठां नि गिरति तां न शक्नोति निःखिदन्। अन्नं यो ब्रह्मणां मल्वः स्वाद्वद्मीति मन्यते ॥
स्वर रहित पद पाठशतऽअपाष्ठम् । नि । गिरति । ताम् । न । शक्नोति । नि:ऽखिदन् । अन्नम् । य: । ब्रह्मणाम् । मल्व: । स्वादु । अद्मि । इति । मन्यते ॥१८.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 18; मन्त्र » 7
विषय - ज्ञान-प्रसार-केन्द्रों की समाप्ति से दुर्व्यवस्थाओं का बोलबाला
पदार्थ -
१. (यः मल्व:) = जो मलिन इच्छाओंवाला राजा (ब्रह्मणां अन्नम्) = ज्ञानी ब्राह्मणों के अन्न को (स्वादु अधि इति मन्यते) = यह कितना स्वादिष्ट है 'इसे मैं खा जाऊँ' ऐसा सोचता है, अर्थात् जो ज्ञानी ब्राह्मणों के ज्ञान-प्रसार के साधन भूत स्थानों को छीनना चाहता है, वह (शत+अपाष्ठाम्) = सैकड़ों अपाष्ठाओवाली-बहुत दुर्भाग्यों से युक्त विपत्ति को ही (निगिरति) = खाता है-प्रास होता है और (तां नि:खिदन) = उस अपाष्ठा को नष्ट करने का यत्न करता हुआ भी (न शक्नोति) = उसे दूर करने में समर्थ नहीं होता।
भावार्थ -
जो राजा ज्ञानी ब्राह्मणों के ज्ञान-प्रसार केन्द्रों को ही खा जाना चाहता है, अर्थात् समाप्त कर देता है, वह राष्ट्र में बहुत दुर्गतियों व अव्यवस्थाओं का कारण बनता है और अन्य कितने भी यत्नों से वह इन दुर्गतियों को दूर नहीं कर पाता।
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