अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 18/ मन्त्र 15
सूक्त - मयोभूः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
इषु॑रिव दि॒ग्धा नृ॑पते पृदा॒कूरि॑व गोपते। सा ब्रा॑ह्म॒णस्येषु॑र्घो॒रा तया॑ विध्यति॒ पीय॑तः ॥
स्वर सहित पद पाठइषु॑:ऽइव । दि॒ग्धा । नृ॒ऽप॒ते॒ । पृ॒दा॒कू:ऽइ॑व । गो॒ऽप॒ते॒ । सा । ब्रा॒ह्म॒णस्य॑ । इषु॑: । घो॒रा । तया॑ । वि॒ध्य॒ति॒ । पीय॑त: ॥१८.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
इषुरिव दिग्धा नृपते पृदाकूरिव गोपते। सा ब्राह्मणस्येषुर्घोरा तया विध्यति पीयतः ॥
स्वर रहित पद पाठइषु:ऽइव । दिग्धा । नृऽपते । पृदाकू:ऽइव । गोऽपते । सा । ब्राह्मणस्य । इषु: । घोरा । तया । विध्यति । पीयत: ॥१८.१५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 18; मन्त्र » 15
विषय - नृपते-गोपते
पदार्थ -
१. हे (नृपते) = मनुष्यों के पालक राजन् ! (दिग्धा इषः इव) = उपर्युक्त ब्राह्मण-वाणी विषबुझे तीर का काम करती है, अत्याचारी को विषबुझे तौर के समान समाप्त कर देती है। हे (गोपते) = ज्ञान की वाणियों के रक्षक राजन् ! (पृदाकू: इव) = ब्राह्मण-वाणी सर्पिणी की भाँति है। यह अत्याचारी को डसकर समाप्त कर देती है। २. (सा) = वह (ब्राह्मणस्य घोरा इषु:) = ब्राह्मण की वाणी ही घोर इषु [बाण] है, (तया पीयत: विध्यति) = उसके द्वारा यह देवहिंसकों का विनाश कर देती है।
भावार्थ -
राजा को 'नृपति व गोपति' बनना चाहिए। वह प्रजा का रक्षण करे, ब्राह्मणों के द्वारा प्रसृत ज्ञानवाणी का भी रक्षण करे, अन्यथा यह वाणी उसे इसप्रकार समाप्त कर देती है, जैसकि विषबुझा तीर या विषैली सर्पिणी।
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