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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 18

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 18/ मन्त्र 9
    सूक्त - मयोभूः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त

    ती॒क्ष्णेष॑वो ब्राह्म॒णा हे॑ति॒मन्तो॒ यामस्य॑न्ति शर॒व्यां॒ न सा मृषा॑। अ॑नु॒हाय॒ तप॑सा म॒न्युना॑ चो॒त दु॒रादव॑ भिन्दन्त्येनम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ती॒क्ष्णऽइ॑षव: । ब्रा॒ह्म॒णा: । हे॒ति॒ऽमन्त॑: । याम् । अस्य॑न्ति । श॒र॒व्या᳡म् । न । सा । मृषा॑ । अ॒नु॒ऽहाय॑। तप॑सा । म॒न्युना॑ । च॒ । उ॒त । दू॒रात् । अव॑ । भि॒न्द॒न्ति॒ । ए॒न॒म् ॥१८.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तीक्ष्णेषवो ब्राह्मणा हेतिमन्तो यामस्यन्ति शरव्यां न सा मृषा। अनुहाय तपसा मन्युना चोत दुरादव भिन्दन्त्येनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तीक्ष्णऽइषव: । ब्राह्मणा: । हेतिऽमन्त: । याम् । अस्यन्ति । शरव्याम् । न । सा । मृषा । अनुऽहाय। तपसा । मन्युना । च । उत । दूरात् । अव । भिन्दन्ति । एनम् ॥१८.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 18; मन्त्र » 9

    पदार्थ -

    १. (बाह्मणा:) = ज्ञान का प्रसार करनेवाले ब्राह्मण (तीक्ष्णेषवः) = बड़े तीक्ष्ण बाणोंवाले होते हैं, वे (हेतिमन्त:) = घातक अस्त्रोंवाले-बज्रवाले होते हैं। ये लोग (यां शरव्याम्) = जिस बाणसमूह को ज्ञान की वाणीरूप बाण को (अस्यन्ति) = छोड़ते हैं, (सा न मृषा) = वे झूठे नहीं होते। यह वाणीरूप बाण अवश्य शत्रु का विनाश करता है। २. ये ब्राह्मण (तपसा) = तप के द्वारा (मन्युना च) = और ज्ञानदीति [मन अवबोधे] के द्वारा (अनुहाय) = पीछा करके (दूरात् उत) = दूर से ही (एनम्) = इस अत्याचारी राजा को (अवभिन्दन्ति) = विदीर्ण कर देते हैं।

    भावार्थ -

    ब्राह्मणों का वणीरूप बाण शत्रुओं को शीर्ण कर डालता है। तप व ज्ञान से सम्पन्न ये ब्राह्मण प्रजाओं के शत्रुभूत राजा को दूर से ही विनष्ट कर देते हैं।

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