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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 18

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 18/ मन्त्र 8
    सूक्त - मयोभूः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त

    जि॒ह्वा ज्या भव॑ति॒ कुल्म॑लं॒ वाङ्ना॑डी॒का दन्ता॒स्तप॑सा॒भिदि॑ग्धाः। तेभि॑र्ब्र॒ह्मा वि॑ध्यति देवपी॒यून् हृ॑द्ब॒लैर्धनु॑र्भिर्दे॒वजू॑तैः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जि॒ह्वा । ज्या । भव॑ति । कुल्म॑लम् । वाक् । ना॒डी॒का: । दन्ता॑: । तप॑सा । अ॒भिऽदि॑ग्धा: । तेभि॑: । ब्र॒ह्मा । वि॒ध्य॒ति॒ । दे॒व॒ऽपी॒यून् । हृ॒त्ऽब॒लै: । धनु॑:ऽभि: । दे॒वऽजू॑तै: ॥१८.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जिह्वा ज्या भवति कुल्मलं वाङ्नाडीका दन्तास्तपसाभिदिग्धाः। तेभिर्ब्रह्मा विध्यति देवपीयून् हृद्बलैर्धनुर्भिर्देवजूतैः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जिह्वा । ज्या । भवति । कुल्मलम् । वाक् । नाडीका: । दन्ता: । तपसा । अभिऽदिग्धा: । तेभि: । ब्रह्मा । विध्यति । देवऽपीयून् । हृत्ऽबलै: । धनु:ऽभि: । देवऽजूतै: ॥१८.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 18; मन्त्र » 8

    पदार्थ -

    १. ब्राह्मण की (जिह्वा) = जीभ (ज्या भवति) = धनुष की डोरी होती है, (वाक) = वाणी (कुल्मलम्) = धनुष का दण्ड हो जाती है और (तपसा अभिदिग्धाः) = तप व तेज से लिस (दन्ताः) = दाँत (नाडीका:) = 'नालीक' नामक बाण हो जाते हैं [न अलीक-न झूठे, अर्थात् शत्रु को अवश्य नष्ट करनेवाले]। २. (तेभि:) = उनके द्वारा (ब्रह्मा) = यह ज्ञानी (देवपीयून) = देवहिंसक राजाओं को (विध्यति) = बींधता है-नष्ट करता है, उन (धनुर्भि:) = धनुषों से बींधता है, जोकि (हृदबलैः) = हृदय की शक्ति से युक्त है तथा (दैवजूतैः) = दिव्य शक्तियों से प्रेरित हैं।

    भावार्थ -

    तपस्वी, ज्ञानी ब्राह्मण की वाणी शत्रुवेधक शर के समान होती है। हृदय की शक्ति से सम्पन्न, दिव्यभाव से प्रेरित यह शर देवहिंसक राजा को विद्ध करता है।

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