अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 18/ मन्त्र 14
सूक्त - मयोभूः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
अ॒ग्निर्वै नः॑ पदवा॒यः सोमो॑ दाया॒द उ॑च्यते। ह॒न्ताभिश॒स्तेन्द्र॒स्तथा॒ तद्वे॒धसो॑ विदुः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्नि:। वै । न॒: । प॒द॒ऽवा॒य: । सोम॑: । दा॒या॒द: । उ॒च्य॒ते॒ । ह॒न्ता । अ॒भिऽश॑स्ता । इन्द्र॑ । तथा॑ । तत् । वे॒धस॑: । वि॒दु॒: ॥१८.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निर्वै नः पदवायः सोमो दायाद उच्यते। हन्ताभिशस्तेन्द्रस्तथा तद्वेधसो विदुः ॥
स्वर रहित पद पाठअग्नि:। वै । न: । पदऽवाय: । सोम: । दायाद: । उच्यते । हन्ता । अभिऽशस्ता । इन्द्र । तथा । तत् । वेधस: । विदु: ॥१८.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 18; मन्त्र » 14
विषय - 'अग्नि, सोम, इन्द्र'
पदार्थ -
१. (वेधसः) = ज्ञानी पुरुष तथा उस प्रकार से (तत्) = उस बात को (विदुः) = जानते हैं कि (अग्निः) = वह अग्रणी प्रभु (वै) = निश्चय से (नः) = हमारा (पदवायः पथ) = प्रदर्शक है [पदं आसव्यस्थानं वाययति गमयति] हमें लक्ष्य-स्थान की ओर ले-जानेवाला है। २. (सोम:) = सोमरूप प्रभु हमारा (दायादः) = बन्धु (उच्यते) = कहा जाता है। यह इन्द्रः-शत्रु-विद्रावक प्रभु ही अभिशस्ता-अत्याचारियों पर शस्त्र-प्रहार करनेवाला व हन्ता उन्हें विनष्ट करनेवाला है।
भावार्थ -
ज्ञानी पुरुष अग्निरूप प्रभु को अपना पथ-प्रदर्शक जानते हैं, वे सोम प्रभु को अपना बन्धु समझते हैं और उन्हें यह विश्वास होता है कि "इन्द्र' प्रभु अत्याचारियों का विनाश करते ही हैं।
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