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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 18

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 18/ मन्त्र 4
    सूक्त - मयोभूः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त

    निर्वै क्ष॒त्रं नय॑ति हन्ति॒ वर्चो॒ऽग्निरि॒वार॑ब्धो॒ वि दु॑नोति॒ सर्व॑म्। यो ब्रा॑ह्म॒णं मन्य॑ते॒ अन्न॑मे॒व स वि॒षस्य॑ पिबति तैमा॒तस्य॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि: । वै । क्ष॒त्रम् । नय॑ति । हन्ति॑ । वर्च॑: । अ॒ग्नि:ऽइ॑व । आऽर॑ब्ध: । वि । दु॒नो॒ति॒ । सर्व॑म् । य: । ब्रा॒ह्म॒णम् । मन्य॑ते । अन्न॑म् । ए॒व । स: । वि॒षस्य॑ । पि॒ब॒ति॒ । तै॒मा॒तस्य॑ ॥१८.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    निर्वै क्षत्रं नयति हन्ति वर्चोऽग्निरिवारब्धो वि दुनोति सर्वम्। यो ब्राह्मणं मन्यते अन्नमेव स विषस्य पिबति तैमातस्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नि: । वै । क्षत्रम् । नयति । हन्ति । वर्च: । अग्नि:ऽइव । आऽरब्ध: । वि । दुनोति । सर्वम् । य: । ब्राह्मणम् । मन्यते । अन्नम् । एव । स: । विषस्य । पिबति । तैमातस्य ॥१८.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 18; मन्त्र » 4

    पदार्थ -

    १. (यः) = जो घमण्डी राजा (ब्राह्मणम्) = ब्रह्मज्ञानी को (अन्नं मन्यते) = [अद्यते] खा जाने योग्य मानता है और उसके ज्ञान-प्रसार कार्य पर प्रतिबन्ध लगा देता है, (स:) = वह राजा इस कार्य को करता हुआ मानो (तैमातस्य विषस्य पिबति) = फनियर नाग के विष को ही पीता है। २. यह ब्रह्मप्रतिबन्धक राजा (वै) = निश्चय से (क्षत्रम्) = बल को (नि: नयति) = बाहर फेंक देता है, अर्थात् इसका बल नष्ट हो जाता है। यह (वर्चः हन्ति) = अपनी प्राणशक्ति को नष्ट कर लेता है, परिणामत: रुग्ण शरीरवाला हो जाता है और (आरब्धः) = चारों [आ+रभ] ओर से लगी हुई (अग्नि: इव) = अग्नि के समान (सर्व विदुनोति) = अपना सब-कुछ जला बैठता है, राष्ट्र को ही विनष्ट कर लेता है।

    भावार्थ -

    ज्ञानप्रसार पर प्रतिबन्ध लगाना भयंकर विष को पीने के समान है । इससे राष्ट्र की शत्रुप्रतिरोधक शक्ति नष्ट हो जाती है, राष्ट्र के व्यक्तियों की प्राणशक्ति क्षीण हो जाती है, सारा राष्ट्र भस्म-सा हो जाता है।

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