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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 19

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 19/ मन्त्र 1
    सूक्त - मयोभूः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त

    अ॑तिमा॒त्रम॑वर्धन्त॒ नोदि॑व॒ दिव॑मस्पृशन्। भृगुं॑ हिंसि॒त्वा सृञ्ज॑या वैतह॒व्याः परा॑भवन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ति॒ऽमा॒त्रम् । अ॒व॒र्ध॒न्त॒ । न । उत्ऽइ॑व । दिव॑म् । अ॒स्पृ॒श॒न् । भृगु॑म् । हिं॒सि॒त्वा । सृन्ऽज॑या: । वै॒त॒ऽह॒व्या: । परा॑ । अ॒भ॒व॒न् ॥१९.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अतिमात्रमवर्धन्त नोदिव दिवमस्पृशन्। भृगुं हिंसित्वा सृञ्जया वैतहव्याः पराभवन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अतिऽमात्रम् । अवर्धन्त । न । उत्ऽइव । दिवम् । अस्पृशन् । भृगुम् । हिंसित्वा । सृन्ऽजया: । वैतऽहव्या: । परा । अभवन् ॥१९.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 19; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (सृञ्जया:) = आक्रान्ता [स] शत्रुओं को जीतनेवाले ये सृञ्जय (अतिमात्रम् अवर्धन्त) = खूब ही वृद्धि को प्राप्त हुए (न उत् इव) = केवल इतना ही नहीं कि वे वृद्धि को प्राप्त हुए, अपितु (दिवं अस्पृशन्) = उन्नत होते हुए उन्होनें तो द्युलोक को जा छुआ। ('अधर्मेणैधते तावत्ततो भगणि पश्यति । ततः सपत्नान् जयति')। ये सृञ्जय जब (वैतहव्या:) = कर-प्राप्त धन को खानेवाले बने तब (भृगुम) = ज्ञान-परिपक्व ब्राह्मण को (हिंसित्वा) = नष्ट करके, उसे ज्ञान-प्रसार आदि कार्यों से रोककर (पराभवन्) = पराभूत हो गये।

    भावार्थ -

    जब राजा सञ्जय-आक्रान्ता शत्रुओं पर विजय पानेवाले होते हैं तब ये खूब ही बढ़ते है, उन्नति के शिखर पर पहुचते है, परन्तु भोग-विलास में फैसते ही यह ज्ञानियों पर प्रतिबन्ध लगाना आरम्भ करते हैं। उन्हें हिंसित करके से स्वयं पराभूत हो जाते हैं-समूलस्तु विनश्यति।

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