अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 19/ मन्त्र 15
सूक्त - मयोभूः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
न व॒र्षं मै॑त्रावरु॒णं ब्र॑ह्म॒ज्यम॒भि व॑र्षति। नास्मै॒ समि॑तिः कल्पते॒ न मि॒त्रं न॑यते॒ वश॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठन । व॒र्षम् । मै॒त्रा॒व॒रु॒णम् । ब्र॒ह्म॒ऽज्यम् । अ॒भि । व॒र्ष॒ति॒ । न । अ॒स्मै॒ । सम्ऽइ॑ति: ।क॒ल्प॒ते॒ । न । मि॒त्रम् । न॒य॒ते॒ । वश॑म् ॥१९.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
न वर्षं मैत्रावरुणं ब्रह्मज्यमभि वर्षति। नास्मै समितिः कल्पते न मित्रं नयते वशम् ॥
स्वर रहित पद पाठन । वर्षम् । मैत्रावरुणम् । ब्रह्मऽज्यम् । अभि । वर्षति । न । अस्मै । सम्ऽइति: ।कल्पते । न । मित्रम् । नयते । वशम् ॥१९.१५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 19; मन्त्र » 15
विषय - अनावृष्टि का कष्ट
पदार्थ -
१. (ब्रह्मज्यम) = ज्ञानक्षय करनेवाले राजा के राष्ट्र में (मैत्रावरुणम् बर्षम्)= मित्र व वरुण सम्बन्धी वृष्टि (न अभिवर्षति) = नहीं बरसती [मित्र-वरुण-अम्लजन व उद्रजन-बे वायुएँ जिनसे जल बनता है]। इस राष्ट्र में अनावृष्टि का दुःखदायी कष्ट होता है। २. (अस्मै) = इस ब्रह्मग्य राजा के लिए (समितिः) = राष्ट्रसभा (न कल्पते) = सामर्थ्य को बढ़ानेवाली नहीं होती और यह राजा (मित्रम्) = मित्र-राष्ट्र से भी (वशं न नयते) = इच्छानुकूल कार्य नहीं कर पाता।
भावार्थ -
ब्रह्मज्य राजा के राष्ट्र में अनावृष्टि आदि आधिदैविक कष्ट आते हैं, राष्ट्र ब्रह्मसभा इसके सामर्थ्य को बढ़ानेवाली नहीं होती, मित्रराष्ट्र भी इसके अनुकूल नहीं रहते।
विशेष -
ब्रह्मज्य राजा के राष्ट्र की दुर्दशा का चित्रण करके संकेत दिया है कि हमें ज्ञान का आदर करते हुए ज्ञानवृद्धि द्वारा ब्रह्मा बनने का प्रयत्न करना है। यह ब्रह्मा ही अगले दो सूक्तों का ऋषि है। ब्रह्मज्य न होकर राजा ब्रह्मा होगा तो इसके राष्ट्र में सदा विजय-दुन्दुभि का नाद उठेगा -