अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 19/ मन्त्र 4
सूक्त - मयोभूः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
ब्र॑ह्मग॒वी प॒च्यमा॑ना॒ याव॒त्साभि वि॒जङ्ग॑हे। तेजो॑ रा॒ष्ट्रस्य॒ निर्ह॑न्ति॒ न वी॒रो जा॑यते॒ वृषा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठब्र॒ह्म॒ऽग॒वी । प॒च्यमा॑ना । याव॑त् । सा । अ॒भि । वि॒ऽजङ्ग॑हे । तेज॑: । रा॒ष्ट्रस्य॑ । नि: । ह॒न्ति॒ । न । वी॒र: । जा॒य॒ते॒ । वृषा॑ ॥१९.४॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रह्मगवी पच्यमाना यावत्साभि विजङ्गहे। तेजो राष्ट्रस्य निर्हन्ति न वीरो जायते वृषा ॥
स्वर रहित पद पाठब्रह्मऽगवी । पच्यमाना । यावत् । सा । अभि । विऽजङ्गहे । तेज: । राष्ट्रस्य । नि: । हन्ति । न । वीर: । जायते । वृषा ॥१९.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 19; मन्त्र » 4
विषय - 'वृषा वीरः' न जायते
पदार्थ -
१. (यावत्) = जब तक (सा ब्रह्मगवी) = वह ब्राह्मण की (गौ पच्यमाना) = कष्टों की अग्नि में तपाई जाती हुई (अभिविजङ्गहे) = तड़पती रहती है, अर्थात् जब तक ब्राह्मण की वाणी का आदर नहीं होता तब तक यह निरादृत ब्रह्मगवी (राष्ट्रस्य तेजः निहन्ति) = राष्ट्र के तेज को नष्ट कर देती है। इस राष्ट्र में (वीर: वृषा न जायते) = वीर धार्मिक पुरुषों का प्रादुर्भाव [विकास] नहीं होता।
भावार्थ -
ब्राह्मण की वाणी पर प्रतिबन्ध लगे रहने पर ज्ञान के प्रसार के अभाव में अधर्म फैलता है, राष्ट्र में तेजस्विता नहीं रहती और धार्मिक वीर पुरुषों का प्रादुर्भाव नहीं होता।
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