अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 19/ मन्त्र 9
सूक्त - मयोभूः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
तं वृ॒क्षा अप॑ सेधन्ति च्छा॒यां नो॒ मोप॑गा॒ इति॑। यो ब्रा॑ह्म॒णस्य॒ सद्धन॑म॒भि ना॑रद॒ मन्य॑ते ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । वृ॒क्षा: । अप॑ । से॒ध॒न्ति॒ । छा॒याम् । न॒: । मा । उप॑ । गा॒: । इति॑ ।य: । ब्रा॒ह्म॒णस्य॑ । सत् । धन॑म् । अ॒भि । ना॒र॒द॒ । मन्य॑ते ॥१९.९॥
स्वर रहित मन्त्र
तं वृक्षा अप सेधन्ति च्छायां नो मोपगा इति। यो ब्राह्मणस्य सद्धनमभि नारद मन्यते ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । वृक्षा: । अप । सेधन्ति । छायाम् । न: । मा । उप । गा: । इति ।य: । ब्राह्मणस्य । सत् । धनम् । अभि । नारद । मन्यते ॥१९.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 19; मन्त्र » 9
विषय - वृक्ष-छाया का अभाव
पदार्थ -
१. हे (नारद) = [नरसमूह द्यति] अभिमानवश नर-समूह को खण्डित व पीड़ित करनेवाले राजन् ! (यः) = जो भी (ब्राह्मणस्य) = ज्ञानी ब्रह्मवेत्ता के (सत् धनम्) उत्कृष्ट [सत्य]ज्ञानरूपी धन को (अभिमन्यते) = [अभिमन्-Injure, threaten] हानि पहुचाना चाहता है, अथवा उसे भयभीत करना चाहता है, अर्थात् जो राजा ज्ञान-प्रसार के कार्य पर प्रतिबन्ध लगाना चाहता है, (तम्) = उसे (वृक्षा: अपसेधन्ति) = वृक्ष अपने से दूर करते हैं और मानो कहते हैं कि (नः छायां मा उपगाः इति) = हमारी छाया में मत आओ, अर्थात् इस अत्याचारी राजा को वृक्ष-छाया का सुख भी प्राप्त नहीं होता।
भावार्थ -
ब्राह्मण के ज्ञान-धन पर प्रतिबन्ध लगानेवाले अत्याचारी राजा के राज्य में वृष्टि न होने से छायावाले वृक्षों का भी अभाव हो जाता है।
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