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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 19

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 19/ मन्त्र 13
    सूक्त - मयोभूः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त

    अश्रू॑णि॒ कृप॑माणस्य॒ यानि॑ जी॒तस्य॑ वावृ॒तुः। तं वै ब्र॑ह्मज्य ते दे॒वा अ॒पां भा॒गम॑धारयन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अश्रू॑णि । कृप॑माणस्य । यानि॑ । जी॒तस्य॑ । व॒वृ॒तु: । तम् । वै । ब्र॒ह्म॒ऽज्य॒ । ते॒ । दे॒वा: । अ॒पाम् । भा॒गम् । अ॒धा॒र॒य॒न् ॥१९.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्रूणि कृपमाणस्य यानि जीतस्य वावृतुः। तं वै ब्रह्मज्य ते देवा अपां भागमधारयन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अश्रूणि । कृपमाणस्य । यानि । जीतस्य । ववृतु: । तम् । वै । ब्रह्मऽज्य । ते । देवा: । अपाम् । भागम् । अधारयन् ॥१९.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 19; मन्त्र » 13

    पदार्थ -

    १. (कृपमाणस्य) = [कृप दौर्बल्ये] दुर्बलीक्रियमाण-भूखा रखकर पीड़ित किये जाते हुए (जीतस्य) = पराभूत व्यक्ति के (यानि अश्रुणि) = जो आँसू (वावृतुः) = प्रवृत्त होते हैं, हे (ब्रह्मज्य) = राष्ट्र में ज्ञान को क्षीण करनेवाले राजन्! (देवा:) = देवों ने (तम् अपां भागम्) = उस जल के भाग को [अश्रुजलों को] (वै) = निश्चय से (ते अधारयन्) = तेरे लिए धारण किया है, तेरे लिए सुरक्षित रक्खा है।

    भावार्थ -

    राष्ट्र में ज्ञानक्षय के द्वारा प्रजापीड़क राजा को उन पीड़ित, पराभूत प्रजाओं के अवजलों को स्वयं पीना पड़ता है। वह सब अत्याचार अन्ततः राजा को स्वयं सहन करना पड़ता है।

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