अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 19/ मन्त्र 7
सूक्त - मयोभूः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - उपरिष्टाद्बृहती
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
अ॒ष्टाप॑दी चतुर॒क्षी चतुः॑श्रोत्रा॒ चतु॑र्हनुः। द्व्या॑स्या॒ द्विजि॑ह्वा भू॒त्वा सा रा॒ष्ट्रमव॑ धूनुते ब्रह्म॒ज्यस्य॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ष्टाऽप॑दी । च॒तु:ऽअ॒क्षी: । चतु॑:ऽश्रोत्रा । चतु॑:ऽहनु: । द्विऽआ॑स्या । द्विऽजि॑ह्वा । भू॒त्वा । सा ।रा॒ष्ट्रम् । अव॑ । धू॒नु॒ते॒ । ब्र॒ह्म॒ऽज्यस्य॑ ॥१९.७॥
स्वर रहित मन्त्र
अष्टापदी चतुरक्षी चतुःश्रोत्रा चतुर्हनुः। द्व्यास्या द्विजिह्वा भूत्वा सा राष्ट्रमव धूनुते ब्रह्मज्यस्य ॥
स्वर रहित पद पाठअष्टाऽपदी । चतु:ऽअक्षी: । चतु:ऽश्रोत्रा । चतु:ऽहनु: । द्विऽआस्या । द्विऽजिह्वा । भूत्वा । सा ।राष्ट्रम् । अव । धूनुते । ब्रह्मऽज्यस्य ॥१९.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 19; मन्त्र » 7
विषय - अद्भुत गौ
पदार्थ -
१. यह ब्रह्मगबी कोई सामान्य गौ नहीं है। यह एक असाधारण गौ है, (अष्टापदी) = आठ इसके पाँव है, (चतुः अक्षी) = चार आँखोंवाली है, (चतुः श्रोन्ना:) = चार कानोंवाली है, (चतुर्हन:) = चार हनुओंवाली है, (द्वयास्या) = दो मुखोंवाली है और (द्विजिहा) = दो जिलाओंवाली है, ऐसी (भूत्वा) = बनकर (सा) = वह (ब्रह्मज्यस्य) = ब्राह्मणों को पीड़ित करनेवाले राजा के (राष्ट्रम्) = राष्ट्र को (अवधूनुते) = कम्पित कर देती है। २. ब्रह्मगवी (अष्टापदी) = है-आठों योगाङ्गों का प्रतिपादन करनेवाली है और उनके द्वारा आठों सिद्धियों को प्राप्त करानेवाली है। अथवा यह राष्ट्र के आठों सचिवों के कार्यों को ठीक से प्रतिपादन करनेवाली है। (चतुरक्षी) = चार वेदरूपी चार आँखोंवाली है। चार वेद ही इसकी चार आँखें हैं। चतः श्रोत्रा-यह चारों आश्रमों व चारों वर्षों से सुनने योग्य है। (चतुर्हन:) = 'साम, दान, दण्ड, भेद' रूप चारों उपायों में गतिवाली है[हन् गती] यास्या यह दो मुखोवाली है। एक मुख से राजकार्यों का प्रतिपादन करती है, तो दूसरे मुख से प्रजा के कार्यों को। एक से आचार्य के कर्तव्यों का प्रतिपादन करती है तो दूसरे से शिष्य के कर्तव्यों का। एक से पति के कर्तव्यों का प्रतिपादन करती है तो दूसरे से पत्नी के। यह ब्रह्मगवी एक पक्ष का ही प्रतिपादन नहीं करती। यह द्विजिहा-दो जिलाओंवाली है। एक से यह अभ्युदय का स्वाद लेती है, तो दूसरे से निःश्रेयस का-इहलोक और परलोक का। यह दोनों के स्वाद को मिलाकर लेती है। ब्रह्मगवी ब्रह्मज्य राजा के राष्ट्र को विनष्ट कर देती है।
भावार्थ -
राजा को ब्रह्मगवी के महत्त्व को समझना चाहिए। गोहत्या भी पाप है, परन्तु ब्रह्मगवी की हत्या तो महापाप है। यह हत्या ब्रह्मज्य राजा के राष्ट्र को नष्ट कर डालती है।
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