अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 22/ मन्त्र 14
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - तक्मनाशनः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - तक्मनाशन सूक्त
ग॒न्धारि॑भ्यो॒ मूज॑व॒द्भ्योऽङ्गे॑भ्यो म॒गधे॑भ्यः। प्रै॒ष्यन् जन॑मिव शेव॒धिं त॒क्मानं॒ परि॑ दद्मसि ॥
स्वर सहित पद पाठग॒न्धारि॑भ्य: । मूज॑वत्ऽभ्य:। अङ्गे॑भ्य: । म॒गधे॑भ्य: । प्र॒ऽए॒ष्यन् । जन॑म्ऽइव । शे॒व॒ऽधिम् ।त॒क्मान॑म् । परि॑ । द॒द्म॒सि॒ ॥२२.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
गन्धारिभ्यो मूजवद्भ्योऽङ्गेभ्यो मगधेभ्यः। प्रैष्यन् जनमिव शेवधिं तक्मानं परि दद्मसि ॥
स्वर रहित पद पाठगन्धारिभ्य: । मूजवत्ऽभ्य:। अङ्गेभ्य: । मगधेभ्य: । प्रऽएष्यन् । जनम्ऽइव । शेवऽधिम् ।तक्मानम् । परि । दद्मसि ॥२२.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 22; मन्त्र » 14
विषय - गन्धारिभ्यः, अङ्गेभ्यः, मगधेभ्यः
पदार्थ -
१. (इव) = जैसे (जनम्) = किसी मनुष्य को (शेवधि प्रेष्यन्) = कोश [धन] भेजा जाता है, उसी प्रकार हम (तक्मानम्) = इस ज्वर को (गन्धारिभ्यः) = [गन्ध हिंसने] हिंसन की वृत्तिवाले पुरुषों के लिए (परि दझ्सि) = दे डालते हैं। इस ज्वर का धन इन हिंसकों के लिए ही ठीक है। २. इसप्रकार हम इस ज्वर-धन को (मूजवध्यः) = घास की अधिकतावाले स्थानों के लिए भेज देते हैं-इन स्थानों में रहनेवालों को ही यह धन प्राप्त हो। (अङ्गेभ्यः) = 'जिन्हें बहुत अधिक गति करनी पड़ती है [अगि गतौ] और परिणामतः श्रम की अति के कारण क्षीण हो जाते हैं उनके लिए हम इस ज्वर-धन को भेजते हैं, अन्तत: (मगधेभ्यः) = [मगं दोषं दधाति] दोषों को धारण करनेवाले मलिन-चरित्र पुरुषों के लिए हम इसे धारण करते हैं।
भावार्थ -
ज्वर हिंसकों को, घास-प्रचुर स्थान में रहनेवालों को, अतिश्रम से थक जानेवालों को तथा दूषित जीवनवालों को प्राप्त होता है।
विशेष -
ज्वर को समाप्त करने के लिए रोग-कृमियों का विनाश आवश्यक है। रोग-कृमियों के विनाश से ज्वर का विनाश स्वत: ही हो जाएगा, अतः अगले सूक्त का विषय कृमियों का विनाश है। इन कृमिरूप राक्षसों का विनाशक 'इन्द्र' है। बुद्धिमत्ता से काम करने के कारण यह 'कण्व' है-मेधावी। यही अगले सूक्त का ऋषि है।