अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 22/ मन्त्र 3
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - तक्मनाशनः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - तक्मनाशन सूक्त
यः प॑रु॒षः पा॑रुषे॒योऽव॑ध्वं॒स इ॑वारु॒णः। त॒क्मानं॑ विश्वधावीर्याध॒राञ्चं॒ परा॑ सुवा ॥
स्वर सहित पद पाठय: । प॒रु॒ष: । पा॒रु॒षे॒य: । अ॒व॒ध्वं॒स:ऽइ॑व । अ॒रु॒ण: । त॒क्मान॑म् । वि॒श्व॒धा॒ऽवी॒र्य॒ । अ॒ध॒राञ्च॑म् । परा॑ । सु॒व॒ ॥२२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यः परुषः पारुषेयोऽवध्वंस इवारुणः। तक्मानं विश्वधावीर्याधराञ्चं परा सुवा ॥
स्वर रहित पद पाठय: । परुष: । पारुषेय: । अवध्वंस:ऽइव । अरुण: । तक्मानम् । विश्वधाऽवीर्य । अधराञ्चम् । परा । सुव ॥२२.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 22; मन्त्र » 3
विषय - विश्वधा वीर्य
पदार्थ -
१. हे (विश्वधावीर्य) = सब ओर वीर्य को धारण करनेवाली ओषधे! तू (तक्मानम्) = चर को (अधराञ्चं परासुव) = नीचे करके दूर भगा दे, विरेचन के द्वारा नीचे की ओर ले जाकर नष्ट कर दे। २. उस ज्वर को दूर कर दे (यः) = जो (पारुषेयः) = शरीर के पर्व-पर्व में बसा हुआ है, (परुषः) = भयंकर है, (अरुण: इव) = अग्नि की भाँति अवध्वंस: देह को [जलाकर] नष्ट करनेवाला है।
भावार्थ -
विश्वधावीर्य ओषधि हमारे पर्व-पर्व में बसे भयंकर रोग को विरेचित करके नष्ट कर देती है।
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