अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 22/ मन्त्र 4
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - तक्मनाशनः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - तक्मनाशन सूक्त
अ॑ध॒राञ्चं॒ प्र हि॑णो॒मि नमः॑ कृ॒त्वा त॒क्मने॑। श॑कम्भ॒रस्य॑ मुष्टि॒हा पुन॑रेतु महावृ॒षान् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ध॒राञ्च॑म् । प्र । हि॒नो॒मि॒ । नम॑: । कृ॒त्वा । त॒क्मने॑ । श॒क॒म्ऽभ॒रस्य॑ । मु॒ष्टि॒ऽहा । पुन॑: । ए॒तु॒ । म॒हा॒ऽवृ॒षान् ॥२२.४॥
स्वर रहित मन्त्र
अधराञ्चं प्र हिणोमि नमः कृत्वा तक्मने। शकम्भरस्य मुष्टिहा पुनरेतु महावृषान् ॥
स्वर रहित पद पाठअधराञ्चम् । प्र । हिनोमि । नम: । कृत्वा । तक्मने । शकम्ऽभरस्य । मुष्टिऽहा । पुन: । एतु । महाऽवृषान् ॥२२.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 22; मन्त्र » 4
विषय - शकम्भरस्य मुष्टिहा
पदार्थ -
१. इस (तक्मने) = ज्वर के लिए (नमः कृत्वा) = नमस्कार करके (अधराञ्चं प्रहिणोमि) = इसे नीचे की ओर गतिवाला करके दूर भेज देता हूँ। २. (शकम्भरस्य) = अपने में शक्ति का भरण करनेवाले का भी-शक्तिशाली का भी (मुष्टिहा) = [मुष स्तेये] शक्तिशोषण के द्वारा विनाश करनेवाला यह ज्वर (पुन:) = फिर (महावृषान् एतु) = बहुत अधिक वृष्टिवाले देशों में जाए।
भावार्थ -
ज्वर को दूर से ही नमस्कार करना ठीक है। इसे विरेचक ओषधि द्वारा निम्नगतिवाला करना चाहिए। यह शक्तिशाली को भी निस्तेज करके नष्ट कर देता है।
अतिवृष्टिवाले देशों में यह फिर-फिर उत्पन्न हो जाता है।
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