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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 30

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 30/ मन्त्र 10
    सूक्त - चातनः देवता - आयुः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायुष्य सूक्त

    ऋषी॑ बोधप्रतीबो॒धाव॑स्व॒प्नो यश्च॒ जागृ॑विः। तौ ते॑ प्रा॒णस्य॑ गो॒प्तारौ॒ दिवा॒ नक्तं॑ च जागृताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋषी॒ इति॑ । बो॒ध॒ऽप्र॒ती॒बो॒धौ । अ॒स्व॒प्न: । य: । च॒ । जागृ॑वि: । तौ । ते॒ । प्रा॒णस्य॑ । गो॒प्तारौ॑ । दिवा॑ । नक्त॑म् । च॒ । जा॒गृ॒ता॒म् ॥३०.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋषी बोधप्रतीबोधावस्वप्नो यश्च जागृविः। तौ ते प्राणस्य गोप्तारौ दिवा नक्तं च जागृताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋषी इति । बोधऽप्रतीबोधौ । अस्वप्न: । य: । च । जागृवि: । तौ । ते । प्राणस्य । गोप्तारौ । दिवा । नक्तम् । च । जागृताम् ॥३०.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 30; मन्त्र » 10

    पदार्थ -

    १. (बोधप्रतीबोधौ) = बोध और प्रतिबोध-बुद्धि व मन-विवेक व चैतन्य-ये दो (ऋषी) = ऋषि है-तेरे जीवन को ध्यान से देखनेवाले हैं। इनमें एक (अस्वप्न:) = न सोनेवाला है (च) = और (यः) = जो दूसरा है वह (जागृविः) = सदा जागता है। विवेक हमें कर्त्तव्य के विषयों में सावधान रखता है और चैतन्य सदा जागरित रखता है। २. (तौ) = वे दोनों (ते प्राणस्य) = तेरे प्राण के (गोसरौ) = रक्षक है, ये (दिवा नक्तं च) = दिन और रात (जागृताम्) = जागते रहें।

    भावार्थ -

    हमारा विवेक व चैतन्य लुप्त न हो। इनका जागरित रहना ही जीवन का रक्षक बनना है।

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