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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 30

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 30/ मन्त्र 7
    सूक्त - चातनः देवता - आयुः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायुष्य सूक्त

    अनु॑हूतः॒ पुन॒रेहि॑ वि॒द्वानु॒दय॑नं प॒थः। आ॒रोह॑णमा॒क्रम॑णं॒ जीव॑तोजीव॒तोऽय॑नम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अनु॑ऽहूत: । पुन॑: । आ । इ॒हि॒ । वि॒द्वान् । उ॒त्ऽअय॑नम् । प॒थ: । आ॒ऽरोह॑णम् । आ॒ऽक्रम॑णम् । जीव॑त:ऽजीवत: । अय॑नम् ॥३०.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनुहूतः पुनरेहि विद्वानुदयनं पथः। आरोहणमाक्रमणं जीवतोजीवतोऽयनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनुऽहूत: । पुन: । आ । इहि । विद्वान् । उत्ऽअयनम् । पथ: । आऽरोहणम् । आऽक्रमणम् । जीवत:ऽजीवत: । अयनम् ॥३०.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 30; मन्त्र » 7

    पदार्थ -

    १. (अनुहूत:) = माता-पिता व आचार्यों से अनुहुत हुआ-हुआ-'तुझे इधर आना है', इसप्रकार निर्देश किया हुआ तू (पुनः एहि) = फिर गतिवाला हो। (उदयनं विद्वान्) = उत्कृष्ट गति को जानता हुआ तू (पथः) = [एहि] मार्ग से गतिवाला हो-सदा उत्तम मार्ग से चलनेवाला हो। तू इस बात का ध्यान रख कि (आरोहण) = ऊपर चढ़ना व (आक्रमणम्) = विघ्नों को आक्रान्त करके आगे बढ़ना ही (जीवतः जीवत:) = प्रत्येक प्राणधारी का (अयनम्) = मार्ग है। तुझे भी आरोहण व आक्रमण को अपनाना है।

    भावार्थ -

    हम अपने बड़ों से निर्दिष्ट मार्ग पर आगे बढ़ें। 'ऊपर उठना और आगे बढ़ना' ही जीवन का मार्ग है-इस बात को समझें।

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