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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 30

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 30/ मन्त्र 16
    सूक्त - चातनः देवता - आयुः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायुष्य सूक्त

    इ॒यम॒न्तर्व॑दति जि॒ह्वा ब॒द्धा प॑निष्प॒दा। त्वया॒ यक्ष्मं निर॑वोचं श॒तं रोपी॑श्च त॒क्मनः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒यम् । अ॒न्त: । व॒द॒ति॒ । जि॒ह्वा । ब॒ध्दा । प॒नि॒ष्प॒दा ।त्वया॑ । यक्ष्म॑म् । नि: । अ॒वो॒च॒म् । श॒तम् । रोपी॑: । च॒ । त॒क्मन॑: ॥३०.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इयमन्तर्वदति जिह्वा बद्धा पनिष्पदा। त्वया यक्ष्मं निरवोचं शतं रोपीश्च तक्मनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इयम् । अन्त: । वदति । जिह्वा । बध्दा । पनिष्पदा ।त्वया । यक्ष्मम् । नि: । अवोचम् । शतम् । रोपी: । च । तक्मन: ॥३०.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 30; मन्त्र » 16

    पदार्थ -

    १. (इयम्) = यह (जिह्वा) = जीभ (अन्तः बद्धा) = मुख में बद्ध हुई-हुई (पनिः पदा) = स्तुति करने में चतुर व व्यवहार में गतिवाली होकर (वदति) = व्यक्त वाणी का उच्चारण करती है। इस वाणी द्वारा ही स्तुति होती है और सब व्यापार चलते हैं। २. हे वाणि! (त्वया) = तेरे द्वार-तेरे बल से (यक्ष्मम्) = रोग को (च) = और (तक्मन:) = कष्टदायी ज्चर की (शतं रोपी:) = सैकड़ों पीड़ाओं को भी (निरवोचम्) = दूर कर देता हूँ-बाहर निकाल फेंकता हूँ।

    भावार्थ -

    वाणी ही स्तवन आदि सब व्यवहारों को सिद्ध करती है। इसके द्वारा हम रोगों व रोगजनित पीड़ाओं को दूर करते हैं।

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