अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 30/ मन्त्र 6
इ॒हैधि॑ पुरुष॒ सर्वे॑ण॒ मन॑सा स॒ह। दू॒तौ य॒मस्य॒ मानु॑ गा॒ अधि॑ जीवपु॒रा इ॑हि ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒ह । ए॒धि॒ । पु॒रु॒ष॒ । सर्वे॑ण । मन॑सा । स॒ह । दू॒तौ । य॒मस्य॑ । मा । अनु॑ । गा॒: । अधि॑ । जी॒व॒ऽपु॒रा: । इ॒हि॒ ॥३०.६॥
स्वर रहित मन्त्र
इहैधि पुरुष सर्वेण मनसा सह। दूतौ यमस्य मानु गा अधि जीवपुरा इहि ॥
स्वर रहित पद पाठइह । एधि । पुरुष । सर्वेण । मनसा । सह । दूतौ । यमस्य । मा । अनु । गा: । अधि । जीवऽपुरा: । इहि ॥३०.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 30; मन्त्र » 6
विषय - रोगों व चिन्ताओं से ऊपर
पदार्थ -
१. हे (पुरुष) = इस शरीर-पुरी में निवास करनेवाले जीव! (सर्वेण मनसा सह) = पूर्ण मन के साथ तू (इह एधि) = यहाँ-जीवन-यात्रा में चलनेवाला हो। तू सदा उत्साह-सम्पन्न होकर जीवन में आगे बढ़। (यमस्य दतौ मा अणुगा:) = यम के दूतों के पीछे जानेवाला न हो। शरीर के रोग तथा मानस चिन्ताएँ' ही यम के दूत हैं। तू इन रोगों व चिन्ताओं से ऊपर उठ। २. (जीवपुरा: अधि इहि) = [अधि+इ स्मरणे] जीवित पुरुषों की अग्रगतियों का तू स्मरण कर । सदा आगे बढ़नेवाला बन।
भावार्थ -
जीवन-यात्रा में हम सदा उत्साह बनाये रक्खें। जो कार्य करें पूरे दिल से करें। रोग व चिन्ताएँ तो यम के दूत हैं। इन्हें परे छोड़कर हम अग्रगतियों का स्मरण करें और आगे बढ़ें।
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