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  • यजुर्वेद - अध्याय 10/ मन्त्र 15
    ऋषिः - वरुण ऋषिः देवता - मित्रावरुणौ देवते छन्दः - विराट् आर्ची पङ्क्ति, स्वरः - पञ्चमः
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    सोम॑स्य॒ त्विषि॑रसि॒ तवे॑व मे॒ त्विषि॑र्भूयात्। मृ॒त्योः पा॒ह्योजो॑ऽसि॒ सहो॑ऽस्य॒मृत॑मसि॥१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सोम॑स्य। त्विषिः॑। अ॒सि॒। तवे॒वेति॒ तव॑ऽइव। मे॒। त्विषिः॑। भू॒या॒त्। मृ॒त्योः। पा॒हि॒। ओजः॑। अ॒सि॒। सहः॒। अ॒सि॒। अ॒मृत॑म्। अ॒सि॒ ॥१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सोमस्य त्विषिरसि तवेव मे त्विषिर्भूयात् । मृत्योः पाह्योजोसि सहोस्यमृतमसि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सोमस्य। त्विषिः। असि। तवेवेति तवऽइव। मे। त्विषिः। भूयात्। मृत्योः। पाहि। ओजः। असि। सहः। असि। अमृतम्। असि॥१५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 10; मन्त्र » 15
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    भावार्थ -

    हे सिंहासन ! एवं राज्यपद ! हे परमेश्वर तू ! (सोमस्य ) सर्वप्रेरक राजा की ही (विषिः) कान्ति या शोभा ( असि ) है । ( मे त्विषिः ) मेरी शोभा भी ( तव इव ) तेरे ही समान ( भूयात् ) हो जाय । हे परमेश्वर ! तु असृत है, तू ( मृत्योः पाहि ) मृत्यु से रक्षा कर। ( ओजः असि, सहः अमृतम् असि ) तू ओज है । सहस, बल है, तू अमृतस्वरूप है शत० ५।४।१।११-१४ ॥ अथवा - राजा के प्रति प्रजा का वचन है। तू सोम, अधिकारी या राज्य पद के योग्य शोभा है । मुझ प्रजाजन की भी तेरे समान कान्ति हो । हे राजन् ! तू राष्ट्र को मृत्यु से बचा । तु ओज, पराक्रमरूप बलरूप और अमृतहै । परमेश्वर के पक्ष में स्पष्ट है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    रुक्मः परमात्मा वा देवता । निचृदार्षी पंक्तिः । पञ्चमः ॥

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