Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 10/ मन्त्र 33
    ऋषिः - शुनःशेप ऋषिः देवता - अश्विनौ देवते छन्दः - निचृत् अनुष्टुप्, स्वरः - गान्धारः
    0

    यु॒वꣳ सु॒राम॑मश्विना॒ नमु॑चावासु॒रे सचा॑। वि॒पि॒पा॒ना शु॑भस्पती॒ऽइन्द्रं॒ कर्म॑स्वावतम्॥३३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒वम्। सु॒राम॑म्। अ॒श्वि॒ना॒। नमु॑चौ। आ॒सु॒रे। सचा॑। वि॒पि॒पा॒नेति॑ विऽपि॒पा॒ना। शु॒भः॒। प॒ती॒ऽइति॑ पती। इन्द्र॑म्। कर्म॒स्विति॒ कर्म॑ऽसु। आ॒व॒त॒म् ॥३३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वयँ सुराममश्विना नमुचावासुरे सचा । विपिपाना शुभस्पती इन्द्रङ्कर्मस्वावतम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    युवम्। सुरामम्। अश्विना। नमुचौ। आसुरे। सचा। विपिपानेति विऽपिपाना। शुभः। पतीऽइति पती। इन्द्रम्। कर्मस्विति कर्मऽसु। आवतम्॥३३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 10; मन्त्र » 33
    Acknowledgment

    भावार्थ -

    हे (अश्विनौ ) प्रजा के स्त्री पुरुषो ! अथवा सुर्य्य चन्द्र- के समान सभापति और सेनापते ! तुम दोनों ( नमुचौ ) कभी भी न छूटने वाले, अथवा कर्तव्य कर्म को न छोड़ने वाले ( आसुरे ) असुर, बलवान पुरुष द्वारा किये जाने योग्य मेघ के समान शत्रु पर किये गये शरषर्ण आदि युद्ध कार्य में अथवा ( नमुचौ ) शरीर से कभी न छूटनेवाले ( आसुरे ) आसुर, भोग विलासादि के कार्य में भी वर्तमान (सुरामम् ) अति रमणीय अति मनोहर राजा को ( विपिपाना) विविध उपायों से रक्षा करते हुए या ( सुरामम् सोमम् विपिपानौ ) उत्तम रमणीय 'सोम' राज्य समृद्धिका भोग करते हुए ( शुभस्पती ) शुभ गुणों के पालक होकर (युवम् ) तुम दोनों ( कर्मसु ) सब कार्यों में ( इन्द्रम् ) ऐश्वर्यवान् राजा की ( आ अवतम् ) रक्षा करते रहो । शत० ५ । ५ । ४ । २५॥ भोगविलासमय आसुरकर्म नमुचि है । उसको 'अपां फेन' अर्थात् प्राप्त पुरुषों के शुद्ध स्वच्छ ज्ञानोपदेश से नाश करे । ऐश्वर्य्य जिसको भोग- विलास असे हुए था उसको भोगविलास से बचाकर रजो विमिश्रित ऐश्वर्य का नरनारी आनन्दप्रद भोग करें । वो भी इन्द्र अर्थात् अपने राष्ट्र और राष्ट्रपति की सदा रक्षा करें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    अश्विनौ देवते । निचृदनुष्टुप् । गान्धारः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top