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  • यजुर्वेद - अध्याय 10/ मन्त्र 7
    ऋषिः - वरुण ऋषिः देवता - वरुणो देवता छन्दः - विराट् आर्षी त्रिष्टुप्, स्वरः - धैवतः
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    स॒ध॒मादो॑ द्यु॒म्निनी॒राप॑ऽए॒ताऽअना॑धृष्टाऽअप॒स्यो वसा॑नाः। प॒स्त्यासु चक्रे॒ वरु॑णः स॒धस्थ॑मपा शिशु॑र्मा॒तृत॑मास्व॒न्तः॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒ध॒माद॒ इति॑ सध॒ऽमादः॑। द्यु॒म्निनीः॑। आपः॑। ए॒ताः। अना॑धृष्टाः। अ॒प॒स्यः᳕। वसा॑नाः। प॒स्त्या᳖सु। च॒क्रे॒। वरु॑णः। स॒धस्थ॒मिति॑ स॒धऽस्थ॑म्। अ॒पाम्। शिशुः॑। मा॒तृत॑मा॒स्विति॑ मा॒तृऽत॑मासु। अ॒न्तरित्य॒न्तः ॥७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सधमादो द्युम्निनीरापऽएताऽअनाधृष्टाऽअपस्यो वसानाः । पस्त्यासु चक्रे वरुणः सधस्थमपाँ शिशुर्मातृतमास्वन्तः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सधमाद इति सधऽमादः। द्युम्निनीः। आपः। एताः। अनाधृष्टाः। अपस्यः। वसानाः। पस्त्यासु। चक्रे। वरुणः। सधस्थमिति सधऽस्थम्। अपाम्। शिशुः। मातृतमास्विति मातृऽतमासु। अन्तरित्यन्तः॥७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 10; मन्त्र » 7
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    भावार्थ -

    ( एताः ) ये ( आपः ) आप्त प्रजाएं ( सधमादः ) समस्त, एक साथ ही आनन्द अनुभव करनेहारी और ( द्युम्निनीः ) धन ऐश्वर्य और बलवीर्य वाली हों। वे ( अपस्यः ) उत्तम कर्म करने में कुशल, ( अनाष्टष्टाः ) शत्रुओं से धर्षित और पीड़ित न होकर, एक ही राष्ट्र में ( वसानाः ) रहती हैं। उन ( पस्त्यासु ) गृह बनाकर रहनेवाली प्रजाओं में ( वरुणः उन द्वारा वरण करने योग्य सर्वोत्तम राजा ( अपां शिशुः ) जलों के भीतर व्यापक अग्नि के समान और ( मातृतमासु अन्तः) उत्तम माताओं के भीतर जिस प्रकार बालक निर्भय होकर रहता और पालन पोषण पाता है उसी प्रकार राजा उन ( मातृतमासु ) राजा को सर्वोत्तम रूप से माता के समान मान करनेहारी प्रजाओं के बीच ( शिशुः ) व्यापकरूप से रहकर उनमें ही ( सधस्थम् ) अपना आश्रय स्थान ( चक्रे ) बनाता है और उनके साथ ही रमता है । शत० ५ । ३ । ५।१९ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    आपो वरुणश्च देवताः । विराडार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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