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  • यजुर्वेद - अध्याय 10/ मन्त्र 16
    ऋषिः - वरुण ऋषिः देवता - क्षत्रपतिर्देवता छन्दः - स्वराट आर्षी जगती, स्वरः - निषादः
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    हिर॑ण्यरूपाऽउ॒षसो॑ विरो॒कऽउ॒भावि॑न्द्रा॒ऽउदि॑थः॒ सूर्यश्च॑। आरो॑हतं वरुण मित्र॒ गर्त्तं॒ तत॑श्चक्षाथा॒मदि॑तिं॒ दितिं॑ च मि॒त्रोऽसि॒ वरु॑णोऽसि॥१६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हिर॑ण्यरूपा॒विति हिर॑ण्यऽरूपौ। उ॒षसः॑। वि॒रो॒क इति॑ विऽरो॒के। उ॒भौ। इ॒न्द्रौ॒। उत्। इ॒थः॒। सूर्यः॑। च॒। आ। रो॒ह॒त॒म्। व॒रु॒ण॒। मि॒त्र॒। गर्त्त॑म्। ततः॑। च॒क्षा॒था॒म्। अदि॑तिम् दिति॑म्। च॒। मि॒त्रः। अ॒सि॒। वरु॑णः। अ॒सि॒ ॥१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हिरण्यरूपाऽउषसो विरोकऽउभाविन्द्राऽउदिथः सूर्यश्च । आ रोहतँवरुण मित्र गर्तन्ततश्चक्षाथामदितिन्दितिञ्च मित्रो सि वरुणो सि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    हिरण्यरूपाविति हिरण्यऽरूपौ। उषसः। विरोक इति विऽरोके। उभौ। इन्द्रौ। उत्। इथः। सूर्यः। च। आ। रोहतम्। वरुण। मित्र। गर्त्तम्। ततः। चक्षाथाम्। अदितिम् दितिम्। च। मित्रः। असि। वरुणः। असि॥१६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 10; मन्त्र » 16
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    भावार्थ -

    हे मित्र और हे वरुण ! ( उभा ) आप दोनों ( हिरण्यरूपौ ) स्वर्ण के समान तेजस्वी ( इन्द्रौ ) राजा के समान ऐश्वर्यवान् ( उषसः ) उषाओं को ( विरोके) विशेष प्रकाश द्वारा ( सूर्यः च) सूर्य और चन्द्र के समान नाना कार्यों और विद्याओं को प्रकाशित करते हुए ( उदिथ: ) उदय होते हो । आप दोनों हे वरुण ! हे मित्र ! (गर्त्तम् ) रथ पर और राष्ट्रवासी प्रजाजनों के ऊपर ( आरोहतम् ) आरूढ होओ और उन पर शासन करो । ( ततः ) और तब ( अदितिम् ) अखण्ड राज- व्यवस्था या पृथिवी और ( दितिम् ) खण्ड २ रूप से विद्यमान समस्त विभक्त व्यवस्था का भी ( चक्षाथाम् ) उपदेश करो या उनका निरीक्षण करो । हे राजन् ! (मित्रः असि ) तू ही स्वयं मित्र, सर्व स्नेही है और( वरुणः असि ) तू ही वरुण, सब शत्रुओं को वारण करने में समर्थ है ॥ शत० ५।४।१ । १६-१७ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    मित्रावरुणौ देवते । जगती । निषादः ॥

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