यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 55
ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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येन॒ वह॑सि स॒हस्रं॒ येना॑ग्ने सर्ववेद॒सम्। तेने॒मं य॒ज्ञं नो॑ नय॒ स्वर्दे॒वेषु॒ गन्त॑वे॥५५॥
स्वर सहित पद पाठयेन॑। वह॑सि। स॒हस्र॑म्। येन॑। अ॒ग्ने॒। स॒र्व॒वे॒द॒समिति॑ सर्वऽवे॒द॒सम्। तेन॑। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। नः॒। न॒य॒। स्वः᳖। दे॒वेषु॑। गन्त॑वे ॥५५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
येन वहसि सहस्रँयेनाग्ने सर्ववेदसम् तेनेमँयज्ञन्नो नय स्वर्देवेषु गन्तवे ॥
स्वर रहित पद पाठ
येन। वहसि। सहस्रम्। येन। अग्ने। सर्ववेदसमिति सर्वऽवेदसम्। तेन। इमम्। यज्ञम्। नः। नय। स्वः। देवेषु। गन्तवे॥५५॥
विषय - उत्तम मार्ग से प्रजा और गृह का चलाना ।
भावार्थ -
हे ( अग्ने ) अग्ने ! विद्वान् ! राजन् ! गृहपते ! राष्ट्रपते ! ( येन ) जिस बल से तू ( सहस्रं ) हजारों अपरिमित प्रजाओं को ( वहति) धारण करता है । और ( येन ) जिस बल से ( सर्ववेदसम् ) समस्त ऐश्वर्यों और समस्त वेदोक्त ज्ञानों और कर्मों को ( वहसि ) धारण करता है ( तेन ) उस बल सामर्थ्य से (नः) हमारे ( इमं यज्ञं ) इस यज्ञ, गृहाश्रम, राष्ट्र पालनरूप परस्पर संगत कर्त्तव्य का ( देवेषु ) विजयी और विद्वान् पुरुषों के आश्रय पर ( स्वः गन्तवे ) सुख प्राप्त करने के लिये ( नय ) सन्मार्ग पर ले चल । अर्थात् तू हमारे राज्य और गृह के कार्यों को विद्वानों के दिखाये मार्ग पर चला । ८ । ६ । ३ । २५ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अग्निर्देवता । निचृदनुष्टुप् । गान्धारः ॥
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