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  • यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 41
    ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृत्पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    अ॒ग्निं तं म॑न्ये॒ यो वसु॒रस्तं॒ यं य॑न्ति धे॒नवः॑। अस्त॒मर्व॑न्तऽआ॒शवोऽस्तं॒ नित्या॑सो वा॒जिन॒ऽइष॑ꣳस्तो॒तृभ्य॒ऽआ भ॑र॥४१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निम्। तम्। म॒न्ये॒। यः। वसुः॑। अस्त॑म्। यम्। यन्ति॑। धे॒नवः॑। अस्त॑म्। अर्व॑न्तः। आ॒शवः॑। अस्त॑म्। नित्या॑सः। वा॒जिनः॑। इष॑म्। स्तो॒तृभ्य॒ इति॑ स्तो॒तृऽभ्यः॑। आ। भ॒र॒ ॥४१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निन्तम्मन्ये यो वसुरस्तँयँयन्ति धेनवः । अस्तमर्वन्त आशवो स्तन्नित्यासो वाजिन इष स्तोतृभ्यऽआ भर ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निम्। तम्। मन्ये। यः। वसुः। अस्तम्। यम्। यन्ित। धेनवः। अस्तम्। अर्वन्तः। आशवः। अस्तम्। नित्यासः। वाजिनः। इषम्। स्तोतृभ्य इति स्तोतृऽभ्यः। आ। भर॥४१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 15; मन्त्र » 41
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    भावार्थ -
    ( यः ) जो ( वसुः ) गृहस्थ के समान व प्रजाओं का बसाने हारा है और (यं ) जिसके पास ( धेनवः ) दुधार गौवें और उनके सन्मान समृद्ध प्रजाएं (अस्तम् यन्ति ) घर के समान शरण समझ कर प्राप्त हों और ( आशवः ) शीघ्र गमनकारी ( अर्वन्तः ) अश्व और अश्वा- रोहीगण ( अस्तं यन्ति ) जिसको अपना गृह समझ कर शरण होते हैं । और ( वाजिनः ) वेगवान् या ऐश्वर्यवान् ( नित्यासः ) नित्य, सदा स्थायी रूप से रहने वाले गृहस्थ पुरुष ( ये अस्तं यन्ति ) जिसको अपना घर सा शरण जान कर प्राप्त होते हैं मैं तो ( तं अग्निम् मन्ये) उस सब के अग्रणी नेता बलवान् पुरुष को 'अग्नि' शब्द से कहाने योग्य मानता और जानता हूं। ऐसे गुणों से युक्त सर्वाश्रय हे अग्ने ! राजन् ! तू (स्तोतृभ्यः) सत्य गुणों के प्रकाशक विद्वानों को ( इषम् ) अन्न आदि ऐश्वर्य ( आभर ) प्राप्त करा, प्रदान कर।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कुमारवृषावृषी अग्निर्देवता | निचृत् पंक्तिः । पञ्चमः ॥

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